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साक़िब लखनवी की रचनाएँ

ज़मानेवालों को पहचानने दिया न कभी

ज़मानेवालों को पहचानने दिया न कभी।
बदल-बदल के लिबास अपने इनक़लाब आया॥

सिवाय यास न कुछ गुम्बदे-फ़लक से मिला।
सदा भी दी तो पलटकर वही जवाब आया॥

मैं नहीं, लेकिन मेरा अफ़साना उनके दिल में है

मैं नहीं, लेकिन मेरा अफ़साना उनके दिल में है।
जानता हूँ मैं कि किस रग में यह नश्तर रह गया॥

आशियाने के तनज़्ज़ुल से बहुत खुश हूँ कि वो,
इस क़दर उतरा कि फूलों के बराबर रह गया॥

इज़्ज़त से बज़्मे-गुल में रहा आशियाँ मेरा

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इज़्ज़त से बज़्मे-गुल में रहा आशियाँ मेरा।
तिनकों की क्या बिसात मगर नाम हो गया॥

इक मेरा आशियाँ है कि जलकर है बेनिशाँ।
इक तूर है कि जब से जला नाम हो गया॥

क़ैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाओ

क़ैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाती बहार।
क्या बिगड़ जाता ज़रा-सी देर में सैयाद का॥

चोट देकर आज़माते हो दिले-आशिक़ का सब्र।
काम शीशे से नहीं लेता कोई फ़ौलाद का॥

आये हो वक़्ते-दफ़्न तो शाना हिला के जाती बहार 

आये हो वक़्ते-दफ़्न तो शाना हिला के जाओ।
आँख उसकी लग गई है, जिसे इन्तेज़ार था॥

मैयत तो उठ गई वो न आये नहीं सही।
‘साक़िब’ किसी के दिल पै, कोई अख़्तियार था?

मेरी ज़बान उनके दहन में हो ऐ करीम

मेरी ज़बान उनके दहन में हो ऐ करीम!
होना है फ़ैसला जो उन्हीं के बयान पर॥

‘साक़िब’! जहाँ में इश्क़ की राहें हैं बेशुमार।
हैरान अक़्ल है कि चलूँ किस निशान पर॥

महशर में कोई पूछनेवाला तो मिल गया

महशर में कोई पूछनेवाला तो मिल गया।
रहमत बड़ी है मुझ को गुनहगार देखकर॥

उन दोस्तों में वो न हों या रब! जो वक़्ते-दीद।
बीमार हो गये रुख़े-बीमार देखकर॥

सैंकडो़ नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो

सैंकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो॥

उनपै दावा क़त्ल का महशर में आसाँ है मगर।
बावफ़ा का ख़ून है, ख़ंजर पै ज़ाहिर भी तो हो॥

मेरी दास्ताने-ग़म को वो ग़लत समझ रहे हैं

मेरी दास्ताने-ग़म को, वो ग़लत समझ रहे हैं।
कुछ उन्हीं की बात बनती अगर एतबार होता॥

दिले पारा-पारा तुझ को कोई यूँ तो दफ़्न करता।
वो जिधर निगाह करते उधर इक मज़ार होता॥

नाज़ो-अदा की चोटें सहना तो और शै है

नाज़ो-अदा की चोटें, सहना तो और शै है।
ज़ख़्मों को देख लेता कोई, तो देखता मैं॥

बर्क़े जमाले-वहदत! तू ही मुझे बता दे।
शोला तो दूर भड़का, फिर किसलिए जला मैं?

ज़िन्दगी में क्या मुझे मिलती बलाओं से नजात

ज़िन्दगी में क्या मुझे मिलती बलाओं से नजात।
जो दुआएँ कीं, वो सब तेरी निगहबाँ हो गईं॥

कम न समझो दहर में सरमाय-ए-अरबाबे-ग़म।
चार बूंदें आँसुओं की, बढ़के तूफ़ाँ हो गईं॥

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