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साबिर ज़फ़र की रचनाएँ

अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ

अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
घर में बिखरी हुई चीज़ों की तरह रहता हूँ

सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
दिन निकलता है तो बिस्तर में पड़ा रहता हूँ

दीन ओ दुनिया से नहीं है कोई झगड़ा मेरा
यानी मैं इन से अलग अपनी जगह रहता हूँ

ख़्वाहिश-ए-दाद नहीं और कोई फ़रियाद नहीं
एक सहरा है जहाँ नग़्मा-सरा रहता हूँ

दरीचा बे-सदा कोई नहीं है

दरीचा बे-सदा कोई नहीं है
अगरचे बोलता कोई नहीं है

मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
जहाँ मेरे सिवा कोई नहीं है

रूकूँ तो मंज़िलें ही मंज़िलें हैं
चलूँ तो रास्ता कोई नहीं है

खुली हैं खिड़कियाँ हर घर की लेकिन
गली में झाँकता कोई नहीं है

किसी से आश्ना ऐसा हुआ हूँ
मुझे पहचानता कोई नहीं है

दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए

दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
ख़्वाब ही ख़्वाह फ़क़त रूह की जागीर हुए

उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
जाने क्या लफ़्ज़ थे जो हम से न तहरीर हुए

ये अलग दुख है कि हैं तेरे दुखों से आज़ाद
ये अलग क़ैद है हम क्यूँा नहीं ज़जीर हुए

दीदा ओ दिल में तिरे अक्स की तश्कील से हम
धूल से फूल हुए रंग से तस्वीर हुए

कुछ नहीं याद कि शब रक़्स की महिफ़ल में ‘ज़फर’
हम जुदा किस से हुए किस से बग़ल-गीर हुए

हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया

हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
फ़िशार-ए-जाँ समुंदर वो पार कर भी गया

खज़िल बहुत हूँ कि आवारगी भी ढब से न की
मैं दर-ब-दर तो गया लेकिन अपने घर भी गया

ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी अगर ये भर भी गया

गुज़रते वक़्त की सूरत हुआ न बेगाना
अगर किसी ने पुकारा तो मैं ठहर भी गया

ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं

ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं
वो लोग मय से ज़ियादा नशे पे गिरते हैं

समेट लेगा वो अपनी कुशादा बाँहों में
जो गिर रहे हैं इसी आसरे पे गिरते हैं

ये इश्क़ है कि हवस इन दिनों तो परवाने
दिए की लौ को बढ़ा कर दिए पे गिरते हैं

गुज़ारता हूँ जो शब इश्क़ बे-मआश के साथ
तो सुब्ह अश्क मिरे नाश्ते पे गिरते हैं

इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से ‘ज़फ़र’
अभी तो संग ज़रा फ़ासले पे गिरते हैं

कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए

कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
वो हम-नवा न रहे सूरत-आश्ना रह जाए

अजब नहीं कि मिरा बोझ भी न मुझ से उठे
जहाँ पड़ा है ज़र-ए-जाँ वहीं पड़ा रह जाए

मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
केवाड़ रात को घर का अगर खुला रह जाए

किसे ख़बर कि इसी फ़र्श-ए-संग पर सो जाऊँ
मिरे मकान में बिस्तर मिरा बिछा रह जाए

‘ज़फ़र’ है बेहतरी इस में कि मैं ख़ामोश रहूँ
खुले ज़बान तो इज़्ज़त किसी की क्या रह जाए

मैं एक हाथ तिरी मौत से मिला आया

मैं एक हाथ तिरी मौत से मिला आया
तिरे सिरहाने अगर-बत्तियाँ जला आया

महकते बाग़ सा इक ख़ानदान उजाड़ दिया
अजल के हाथ में क्या फूल के सिवा आया

तिरा ख़याल न आया सो तेरी फ़ुर्क़त में
मैं रो चुका तो मिरे दिल को सब्र सा आया

मिसाल-ए-कुंज-ए-क़फ़स कुछ जगह थी तेरे क़रीब
मैं अपने नाम की तख़्ती वहाँ लगा आया

मकान अपनी जगह से हटा हुआ था ‘ज़फर’
न जाने कौन सा लम्हा गुरेज़-पा आया

निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई

निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई
पयम्बरी न सही दुख पयम्बराना कोई

इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
मोहब्बतें हों तो बनता नहीं बहाना कोई

मैं तेरे दौर में ज़िंदा हूँ तू ये जानता है
हदफ़ तो मैं था मगर बन गया निशाना कोई

अब इस क़द्र भी यहाँ ज़ुल्म को पनाह न दो
ये घर गिरा ही न दे दस्त-ए-ग़ाएबाना कोई

उजालता हूँ मैं नालैन-ए-पा-लख़्त-ए-जिगर
कि मदरसे को चला इल्म का ख़जाना कोई

पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी

पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
लहू लहू ही रहा जम के भी पिघल के भी

बदन ने छोड़ दिया रूह न रिहा न किया
मैं क़ैद ही में रहा क़ैद से निकल के भी

तहों का शोर भी अब सतह पर सुनाई दे
वो जोश में है तो फिर जिस्म ओ जाँ से छलके भी

नई रूतों में भी ‘साबिर’ उदासियाँ न गईं
ख़मीदा-सर है हर इक शाख़ फूल फल के भी

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