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सुधीर विद्यार्थी’की रचनाएँ

नदी

एक

जानवर ज़रूरत भर पानी
पी रहे हैं नदी से
चिड़िया चोंच भर पीती हैं
मछलियाँ और मगरमच्छ
गलफड़े भर कर
वृक्ष सोखते हैं
जड़ भर पानी
सूरज अपनी गर्मी भर पीकर
लौटा देता है बादलों को
पर मनुष्य को कितना पानी चाहिए
यह नदी भी नहीं जानती

दो

जंगल में रहकर नदी
जंगल नहीं हो जाती
जंगल के जंगलीपन के बावजूद
वह नहीं छोड़ देती
अपना नदी होना

तीन

नदी को पंडित जानते हैं
जानते हैं तिलकधारी पंडे
कथावाचक और हरबोले
तंबुओं के खूँटे गाड़ते मजदूर
प्रसाद की दुकानों पर बैठे
मैले-कुचैले हलवाई
लहरों को पतवार से चीरने वाले
मल्लाहों के काले चौड़े मज़बूत कंधे
नदी इन सबके लिए
कोई पवित्र शब्द नहीं
वह थाली में सजी
भूख भर रोटी है

चार

प्लास्टिक के टब में नदी भर कर
काग़ज़ की नाव उतार रहे हैं बच्चे
नाव, नदी और बच्चे
सभी खुश हैं
बच्चों के साथ रहकर
लौट आता है नदी का बचपन

पाँच

पाल लगी नावें
नदी की लहरों पर
हवा के रुख को देखकर
तैरती हैं
हवा बहा ले जाती है
अपने साथ नावों का काफ़िला
हवा के साथ-साथ
कभी नहीं चलती नदी

छह

कविता से गायब हो गई है नदी
छूट गई है नदी कविता से
एक संत कवि ने नदी के किनारे बैठकर
लिखी थीं कविताएँ
एक प्रयोगवादी कवि ने
नदी में खड़े होकर
पढ़ी थीं कविताएँ
फिर भी रूठ क्यों गई है नदी
कविता से

सात

नदी में दिखाई पड़ रहा है
हमारा चेहरा
नदी का बयान
हमारे समय पर
एक क्रूर टिप्पणी है

आठ

नदी आत्मकथा लिखना चाहती है
वह दर्ज़ करना चाहती है
अपने सारे सुख-दुख
जन्म से अब तक के
उल्लास, मिलन, बिछोह
विद्रोह और समर्पण
वह अपना अधूरापन
उगलना चाहती है
कहना चाहती है
कि उसका नदी होना
सबसे बड़ा अपराध है

नौ

नदी का संकट सिर्फ़ नदी का नहीं है
हमारे समय की सबसे भयानक खबर है यह
कि गाँव उजड़ रहे हैं
जंगल होते जा रहे हैं शहर
नदी को डंस रहे हैं
तरक्की के सबसे ज़हरीले साँप
नदी के खिलाफ़
हमारी पीढ़ी का
सबसे घिनौना षड़यंत्र है यह
नदी तुम बगावत क्यों नहीं करती
जीने के हक के लिए
दुनिया की सारी नदियों को
एक हो जाना चाहिए

बीज

बीज

यदि मैं कठफोड़वा होता
तो दुनिया भर के
काठ हो चुके लोगों के
सिरों को फोड़ कर
भर देता जीवन के बीज

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