तुम्हें भी आँख में तब क्या नमी महसूस होती है ?
ख़ुशी बेइंतहा जब भी कभी महसूस होती है
तुम्हें भी आँख में तब क्या नमी महसूस होती है ?
कभी फुरकत भी जाँ परवर लगे, होता है ऐसा भी
कभी कुर्बत में कुर्बत की कमी महसूस होती है
मिले शोहरत, मिले दौलत, तमन्ना कोई पूरी हो
ख़ुशी कैसी भी हो, बस दो घड़ी महसूस होती है
कोई अल्हड़ सी लड़की प्यार के क़िस्से सुनाये तो
मुझे भी अपने दिल में गुदगुदी महसूस होती है
खिलें कुछ फूल सहरा में तमन्ना है यही दिल की
मगर ये फ़िक्र मुझको सरफिरी महसूस होती है
उसे आदत है मुझको छेड़ने और तंग करने की
मुझे ये दिल्लगी दिल की लगी महसूस होती है
शिकायत सुनके वो चुपचाप रहता है मगर ‘श्रद्धा’
लबों पे उसके हल्की कँपकँपी महसूस होती है
न मंज़िल का, न मकसद का , न रस्ते का पता है
न मंज़िल का, न मकसद का , न रस्ते का पता है
हमेशा दिल किसी के पीछे ही चलता रहा है
थे बाबस्ता उसी से ख्वाब, ख्वाहिश, चैन सब कुछ
ग़ज़ब, अब नींद पर भी उसने कब्ज़ा कर लिया है
बसा था मेरी मिट्टी में , उसे कैसे भुलाती
मगर देखो न आखिर ये करिश्मा हो गया है
मोहब्बत बेज़ुबां है, बेज़ुबाँ थी , सच अगर है
बताओ, प्य़ार क्यूँ किस्सा-कहानी बन गया है ?
सभी शामिल है उसके चाहने वालों में श्रद्धा ”
कोई तो राज़ है इसमें , कि वो सचमुच भला है
समझ कर हमने वादा कर लिया है
अभी से खुद को आधा कर लिया है
बिछड़ने का इरादा कर लिया है
मोहब्बत से भी हम उकता गए हैं
ये सौदा भी ज़ियादा कर लिया है
भला वादे निभाये जाते हैं क्या ?
समझ कर हमने वादा कर लिया है
ये दुनिया आज भी रंगीन ही है
हम ही ने खुद को सादा कर लिया है
मुआफ़ उसको नहीं करना था लेकिन
अब इस दिल को कुशादा कर लिया है
तो क्या हमको मोहब्बत हो गई जी ?
है छाई बेसबब दिल पर उदासी
तो क्या हमको मोहब्बत हो गई जी ?
कभी हो, राह मैं भी भूल जाऊं
बुलाये चीख कर अंदर से कोई
कभी रोशन, कभी तारीक़ दुनिया
तुम्हें भी क्या कभी लगती है ऐसी ?
ज़ज़ीरे की तरह है ज़िंदगी अब
उभरती डूबती रहती है ये भी
मेरे सर पर है साया बादलों का
ज़मीं पैरों के नीचे आग जैसी
सदा मेरी कहाँ सुन पाएंगे वो
जिन्होंने ज़िंदगी भर जी ख़ामोशी
अभी तक ख्वाब कुछ ज़िंदा हैं लेकिन
मेरी आँखों से शायद नींद खोई
सिर्फ़ हमने जी के देखा प्यार में
बात दिल की कह दी जब अशआर में
ख़त किताबत क्यूँ करूँ बेकार में
मरने वाले तो बहुत मिल जाएंगे
सिर्फ़ हमने जी के देखा प्यार में
कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में
आज तक हम क़ैद हैं इस खौफ से
दाग़ लग जाए न इस किरदार में
दोस्ती, रिश्ते, ग़ज़ल सब भूल कर
आज कल उलझी हूँ मैं घर बार में
जाने वाले कब लौटे हैं ? क्यूँ करते हैं वादे लोग ?
जाने वाले कब लौटे हैं क्यूँ करते हैं वादे लोग
नासमझी में मर जाते हैं हम से सीधे सादे लोग
पूछा बच्चों ने नानी से – हमको ये बतलाओ ना
क्या सचमुच होती थी परियां, होते थे शहज़ादे लोग ?
टूटे सपने, बिखरे अरमां, दाग़ ए दिल और ख़ामोशी
कैसे जीते हैं जीवन भर इतना बोझा लादे लोग
अम्न वफ़ा नेकी सच्चाई हमदर्दी की बात करें
इस दुनिया में मिलते है अब, ओढ़े कितने लबादे लोग
कट कर रहते – रहते हम पर वहशत तारी हो गई है
ए मेरी तन्हाई जा तू, और कहीं के ला दे लोग
तेरी ख़ुशबू के तआकुब में भटकना ज़िंदगी है..
पेड़ के फलदार बनने की कहानी रस भरी है
शाख़ लेकिन मौसमों के हर सितम को झेलती है
सैकड़ों बातें इधर हैं उस तरफ बस खामुशी है
कैसे सपने देखती हूँ मैं ये क्या दीवानगी है
गर तुम्हारी बात पर हँसता है अब तक ये ज़माना
फिर समझ लेना अधूरी आज भी दीवानगी है
हो कभी शिकवे-गिले, तकरार, झगड़े भी कभी हों
रूठ कर ख़ामोश हो जाना तेरी आदत बुरी है
झूठ को सच, रात को दिन, उम्र भर कहते रहे, हम
तीरगी तो तीरगी है, रौशनी तो रौशनी है
नम हवाओं में तेरा एह्सास ज़िंदा है अभी तक
तेरी ख़ुशबू के तआकुब में भटकना ज़िंदगी है
रंग में दुनिया के आखिरकार हम भी ढल गए हैं
आइना भी अजनबी है अब जहाँ भी अजनबी है
अब मैं क्या अपना तआरुफ़ तुम को दूं ‘श्रद्धा’ बताओ
ज़िंदगी ग़ज़लें मेरी, पहचान मेरी शायरी है
हमने ख़ुद अपने ही हाथों से जलाईं हसरतें
जब हमारी बेबसी पर मुस्करायीं हसरतें
हमने ख़ुद अपने ही हाथों से जलाईं हसरतें
ये कहीं खुद्दार के क़दमों तले रौंदी गईं
और कहीं खुद्दरियों को बेच आईं हसरतें
सबकी आँखों में तलब के जुगनू लहराने लगे
इस तरह से क्या किसी ने भी बताईं हसरतें
तीरगी, खामोशियाँ, बैचेनियाँ, बेताबियाँ
मेरी तन्हाई में अक्सर जगमगायीं हसरतें
मेरी हसरत क्या है मेरे आंसुओं ने कह दिया
आपने तो शोख रंगों से बनाईं हसरतें
सिर्फ तस्वीरें हैं, यादें हैं, हमारे ख़्वाब हैं
घर की दीवारों पे हमने भी सजाईं हसरतें
इस खता पे आज तक ‘श्रद्धा’ है शर्मिंदा बहुत
एक पत्थरदिल के क़दमों में बिछायीं हसरतें
अजनबी खुद को लगे हम
अजनबी खुद को लगे हम
इस कदर तन्हा हुए हम
उम्र भर इस सोच में थे
क्या कभी सोचे गए हम
खूबसूरत ज़िंदगी थी
तुम से मिलकर जब बने हम
चाँद दरिया में खड़ा था
आसमाँ तकते रहे हम
सुबह को आँखों में रख कर
रात भर पल – पल जले हम
खो गए हम भीड़ में जब
फिर बहुत ढूँढे गए हम
इस ज़मीं से आसमां तक
था जुनूँ उलझे रहे हम
जीस्त के रस्ते बहुत थे
हर तरफ रोके गए हम
लफ्ज़ जब उरियाँ हुए तो
फिर बहुत रुसवा हुए हम
जागने का ख़्वाब ले कर
देर तक सोते रहे हम
तेरे सच को पढ़ लिया था
बस इसी खातिर मिटे हम
बाबा अब तो आँखें खोल
जीवन नैया डांवांडोल
बाबा अब तो आँखें खोल
खुल जायेगी तेरी पोल
खुद को इतना भी न टटोल
प्यार में बिक जाये अनमोल
इक गुड़िया है गोल-मटोल
कौन यहाँ किसको क्या दे
सबके हाथों में कशकोल
आज हादसा नहीं हुआ
जश्न मनाओ, पीटो ढोल
जो बिछुड़ा वो फिर न मिला
हम समझे थे दुनिया गोल
क्यों मुश्किल में पड़ता है
सबकी बातों पर हाँ बोल
सोने पर लोहा भारी
वक़्त आ गया लोहा तोल
जब बुरा बन गया, भला न हुआ
मुझसे इतना भी हौसला न हुआ
जब बुरा बन गया, भला न हुआ
ज़ख्म के फूल अब भी ताज़ा हैं
दूर होकर भी फासला न हुआ
तेरी आहट क़दम-क़दम पर थी
ज़िंदगी में कभी खला न हुआ
होने वाली है कोई अनहोनी
वक़्त पर एक फ़ैसला न हुआ
रेज़ा-रेज़ा बिखर गए सपने
लोग कहते हैं मसअला न हुआ
हादसा होते सबने देखा पर
कोई उलझन से मुब्तला न हुआ
मेरी पहचान रहेगी मेरे अफसानों में
जैसे होती थी किसी दौर में, हैवानों में
बेसकूनी है वही आज के इंसानों में
जल्द उकताते हैं हर चीज़ से, हर मंजिल से
ये परिंदों की सी आदत भी है दीवानों में
उम्र भर सच के सिवा कुछ न कहेंगे, कह कर
नाम लिखवा लिया अब हमने भी नादानों में
जिस्म दुनिया में भी जन्नत के मज़े लेता रहा
रूह इक उम्र भटकती रही वीरानों में
उसकी मेहमान नवाजी की अदाएं देखीं
हम भी सकुचाए से बैठे रहे बेगानों में
नाम, सूरत तो हैं पानी पे लिखी तहरीरें
मेरी पहचान रहेगी मेरे अफसानों में
झूठ का ज़हर समाअत से उतर जाएगा
बूंद सच्चाई की उतरे तो मेरे कानों में
जो भी होना है वो निश्चित है, अटल है ‘श्रद्धा’
क्यूँ न कश्ती को उतारे कभी तूफानों में
नज़र में ख़्वाब नए रात भर सजाते हुए
नज़र में ख़्वाब नए रात भर सजाते हुए
तमाम रात कटी तुमको गुनगुनाते हुए
तुम्हारी बात, तुम्हारे ख़याल में गुमसुम
सभी ने देख लिया हमको मुस्कराते हुए
फ़ज़ा में देर तलक साँस के शरारे थे
कहा है कान में कुछ उसने पास आते हुए
हरेक नक्श तमन्ना का हो गया उजला
तेरा है लम्स कि जुगनू हैं जगमगाते हुए
दिल-ओ-निगाह की साजिश जो कामयाब हुई
हमें भी आया मज़ा फिर फरेब खाते हुए
बुरा कहो कि भला पर यही हक़ीकत है
पड़े हैं पाँव में छाले वफ़ा निभाते हुए
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी
जब कभी मुझको गम-ए-यार से फुर्सत होगी
मेरी गजलों में महक होगी, तरावत होगी
भुखमरी, क़ैद, गरीबी कभी तन्हाई, घुटन
सच की इससे भी जियादा कहाँ कीमत होगी
धूप-बारिश से बचा लेगा बड़ा पेड़ मगर
नन्हे पौधों को पनपने में भी दिक्क़त होगी
बेटियों के ही तो दम से है ये दुनिया कायम
कोख में इनको जो मारा तो क़यामत होगी
आज होंठों पे मेरे खुल के हंसी आई है
मुझको मालूम है उसको बड़ी हैरत होगी
नाज़ सूरत पे, कभी धन पे, कभी रुतबे पर
ख़त्म कब लोगों की आखिर ये जहालत होगी
जुगनुओं को भी निगाहों में बसाए रखना
काली रातों में उजालों की ज़रूरत होगी
वक़्त के साथ अगर ढल नहीं पाईं ‘श्रद्धा’
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना
किसी उजड़े हुए घर को बसाना
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना
यकीनन आग बुझ जाती है इक दिन
मुसलसल गर पड़े ख्वाहिश दबाना
वो उस पल आसमां को छू रहा था
ये क्या था, उसका चुपके से बुलाना
ये सच है राह में कांटे बिछे थे
हमें आया नहीं दामन बचाना
हवा में इन दिनों जो उड़ रहे हैं
ज़मीं पर लौट आएँ फिर बताना
गिरे पत्ते गवाही दे रहे हैं
कभी मौसम यहाँ भी था सुहाना
परिंदा क्यूँ उड़े अब आसमाँ में
उसे रास आ गया है क़ैदखाना
अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
ऐसे रोते हुए लोगों को संभाला मैंने
शाम कुछ देर ही बस सुर्ख़ रही, हालांकि
खून अपना तो बहुत देर उबाला मैंने
बच्चे कहते हैं कि एहसान नहीं फ़र्ज़ था वो
अपनी ममता का दिया जब भी हवाला मैंने
कभी सरकार पे, किस्मत पे, कभी दुनिया पर
दोष हर बात का औरों पे ही डाला मैंने
लोग रोटी के दिलासों पे यहाँ बिकते हैं
जब कि ठुकरा दिया सोने का निवाला मैंने
आप को शब् के अँधेरे से मुहब्बत है, रहे
चुन लिया सुबह के सूरज का उजाला मैंने
आज के दौर में सच बोल रही हूँ ‘श्रद्धा’
अक्ल पर अपनी लगा रक्खा है ताला मैंने
ये सीढ़ियाँ ही ढलान की हैं
समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ तो ढलान की हैं
ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
चिताएँ ये संविधान की हैं
मिठाइयाँ बस वो ही हैं फीकी
जो सब से ऊँची दुकान की हैं
फसाद दिल में है और लब पर
सदाएँ अम्न ओ अमान की हैं
खुलूस, नेकी, वफ़ा, भलाई
ये खूबियाँ बस बयान की हैं
गुनाह की हैं, गवाह वो भी
जो खिड़कियाँ उस मकान की हैं
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें किस खुशगुमान की हैं ?
वो पर क़तर कर ये बोला ‘श्रद्धा’
खुली हदें आसमान की हैं
टूटे हुए दिल की है, बस इतनी सी कहानी
शीशे के बदन को मिली पत्थर की निशानी
टूटे हुए दिल की है बस इतनी-सी कहानी
फिर कोई कबीले से कहीं दूर चला है
बग़िया में किसी फूल पे आई है जवानी
कुछ आँखें किसी दूर के मंज़र पर टिकी हैं
कुछ आँखों से हटती नहीं तस्वीर पुरानी
औरत के इसी रूप से डर जाते हैं अब लोग
आँचल भी नहीं सर पे नहीं आँख में पानी
तालाब है, नदियाँ हैं, समुन्दर है पर अफ़सोस
हमको तो मयस्सर नहीं इक बूंद भी पानी
छप्पर हो, महल हो, लगे इक जैसे ही दोनों
घर के जो समझ आ गए ‘श्रद्धा’ को मआनी
वो ही तूफानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफ़ानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
मैं जो हँसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख़्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं
ज़िंदगी, मौत, जुदाई और मिलन एक जगह
एक ही रात में कितने दिए जल जाते हैं
आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की ख़बर से भी दहल जाते हैं
हमको ज़ख़्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
कैसे ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं
मेरे घर के रास्ते में आसमाँ और कहकशां हैं
लहलहाते खेत, पर्वत, वादियाँ और गुलसितां हैं
मेरे घर के रास्ते में आसमाँ और कहकशां हैं
उनकी ही साजिश की कश्ती को किनारा मिल गया है
जिनको हासिल हिकमतों से घर की सारी कुंजियाँ हैं
ज़िन्दगी के सब मसाइल तूने भी झेले हैं ‘श्रद्धा’
फिर तेरी ग़ज़लों में ग़ालिब-मीर से तेवर कहाँ हैं
मुस्कराना मुझे भी आता है
मुस्कराना मुझे भी आता है
बेसबब कौन मुस्कराता है
भूलना चाहती हूँ मैं जिसको
क्यूँ वही शख्स याद आता है
किसको को है इंतज़ार खुशियों का
रेत पर कौन घर बनाता है
सामने आइना मेरे रख कर
क्यूँ नज़र से मुझे गिराता है
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
सूख जाएगा समुन्दर देखना
अपनी आदत, अपने अन्दर देखना
देखना खुद को निरंतर देखना
हर बुलंदी पर है तन्हाई बहुत
सख्त मुश्किल है सिकंदर देखना
झूठ-सच का फैसला लेना हो जब
चीखता है कौन अन्दर देखना
शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
देखना मेरा मुक़द्दर देखना
खून जिनका धर्म और ईमान है
उनके छज्जे पर कबूतर देखना
गर यूँ ही खुदगर्ज़ियाँ बढती रहीं
लोग हो जाएँगे पत्थर देखना
अश्क का दरिया न बह पाया अगर
दिल भी हो जाएगा बंजर देखना
मेरा और साहिल का रिश्ता है अजब
दोनों के रस्ते में पत्थर, देख ना !
प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
मुद्दतों हमने किया, पागलपन
हमने आवाज़ उठाई हक की
जबकि लोगों ने कहा, पागलपन
जाने वालों को सदा देने से
सोच क्या तुझको मिला, पागलपन
लोग सच्चाई से कतरा के गए
मुझ पे ही टूट पड़ा, पागलपन
जब भी देखा कभी मुड़ कर पीछे
अपना माज़ी ही लगा, पागलपन
खो गए वस्ल के लम्हे “श्रद्धा”
मूंद मत आँख, ये क्या पागलपन
कोई उलझन से मुब्तला न हुआ
मेरी पहचान रहेगी मेरे अफसानों में
जैसे होती थी किसी दौर में, हैवानों में
बेसकूनी है वही आज के इंसानों में
जल्द उकताते हैं हर चीज़ से, हर मंजिल से
ये परिंदों की सी आदत भी है दीवानों में
उम्र भर सच के सिवा कुछ न कहेंगे, कह कर
नाम लिखवा लिया अब हमने भी नादानों में
जिस्म दुनिया में भी जन्नत के मज़े लेता रहा
रूह इक उम्र भटकती रही वीरानों में
उसकी मेहमान नवाजी की अदाएं देखीं
हम भी सकुचाए से बैठे रहे बेगानों में
नाम, सूरत तो हैं पानी पे लिखी तहरीरें
मेरी पहचान रहेगी मेरे अफसानों में
झूठ का ज़हर समाअत से उतर जाएगा
बूंद सच्चाई की उतरे तो मेरे कानों में
जो भी होना है वो निश्चित है, अटल है ‘श्रद्धा’
क्यूँ न कश्ती को उतारे कभी तूफानों में
नज़र में ख़्वाब नए रात भर सजाते हुए
नज़र में ख़्वाब नए रात भर सजाते हुए
तमाम रात कटी तुमको गुनगुनाते हुए
तुम्हारी बात, तुम्हारे ख़याल में गुमसुम
सभी ने देख लिया हमको मुस्कराते हुए
फ़ज़ा में देर तलक साँस के शरारे थे
कहा है कान में कुछ उसने पास आते हुए
हरेक नक्श तमन्ना का हो गया उजला
तेरा है लम्स कि जुगनू हैं जगमगाते हुए
दिल-ओ-निगाह की साजिश जो कामयाब हुई
हमें भी आया मज़ा फिर फरेब खाते हुए
बुरा कहो कि भला पर यही हक़ीकत है
पड़े हैं पाँव में छाले वफ़ा निभाते हुए
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी
जब कभी मुझको गम-ए-यार से फुर्सत होगी
मेरी गजलों में महक होगी, तरावत होगी
भुखमरी, क़ैद, गरीबी कभी तन्हाई, घुटन
सच की इससे भी जियादा कहाँ कीमत होगी
धूप-बारिश से बचा लेगा बड़ा पेड़ मगर
नन्हे पौधों को पनपने में भी दिक्क़त होगी
बेटियों के ही तो दम से है ये दुनिया कायम
कोख में इनको जो मारा तो क़यामत होगी
आज होंठों पे मेरे खुल के हंसी आई है
मुझको मालूम है उसको बड़ी हैरत होगी
नाज़ सूरत पे, कभी धन पे, कभी रुतबे पर
ख़त्म कब लोगों की आखिर ये जहालत होगी
जुगनुओं को भी निगाहों में बसाए रखना
काली रातों में उजालों की ज़रूरत होगी
वक़्त के साथ अगर ढल नहीं पाईं ‘श्रद्धा’
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना
किसी उजड़े हुए घर को बसाना
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना
यकीनन आग बुझ जाती है इक दिन
मुसलसल गर पड़े ख्वाहिश दबाना
वो उस पल आसमां को छू रहा था
ये क्या था, उसका चुपके से बुलाना
ये सच है राह में कांटे बिछे थे
हमें आया नहीं दामन बचाना
हवा में इन दिनों जो उड़ रहे हैं
ज़मीं पर लौट आएँ फिर बताना
गिरे पत्ते गवाही दे रहे हैं
कभी मौसम यहाँ भी था सुहाना
परिंदा क्यूँ उड़े अब आसमाँ में
उसे रास आ गया है क़ैदखाना
अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
ऐसे रोते हुए लोगों को संभाला मैंने
शाम कुछ देर ही बस सुर्ख़ रही, हालांकि
खून अपना तो बहुत देर उबाला मैंने
बच्चे कहते हैं कि एहसान नहीं फ़र्ज़ था वो
अपनी ममता का दिया जब भी हवाला मैंने
कभी सरकार पे, किस्मत पे, कभी दुनिया पर
दोष हर बात का औरों पे ही डाला मैंने
लोग रोटी के दिलासों पे यहाँ बिकते हैं
जब कि ठुकरा दिया सोने का निवाला मैंने
आप को शब् के अँधेरे से मुहब्बत है, रहे
चुन लिया सुबह के सूरज का उजाला मैंने
आज के दौर में सच बोल रही हूँ ‘श्रद्धा’
अक्ल पर अपनी लगा रक्खा है ताला मैंने
ये सीढ़ियाँ ही ढलान की हैं
समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ तो ढलान की हैं
ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
चिताएँ ये संविधान की हैं
मिठाइयाँ बस वो ही हैं फीकी
जो सब से ऊँची दुकान की हैं
फसाद दिल में है और लब पर
सदाएँ अम्न ओ अमान की हैं
खुलूस, नेकी, वफ़ा, भलाई
ये खूबियाँ बस बयान की हैं
गुनाह की हैं, गवाह वो भी
जो खिड़कियाँ उस मकान की हैं
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें किस खुशगुमान की हैं ?
वो पर क़तर कर ये बोला ‘श्रद्धा’
खुली हदें आसमान की हैं
टूटे हुए दिल की है, बस इतनी सी कहानी
शीशे के बदन को मिली पत्थर की निशानी
टूटे हुए दिल की है बस इतनी-सी कहानी
फिर कोई कबीले से कहीं दूर चला है
बग़िया में किसी फूल पे आई है जवानी
कुछ आँखें किसी दूर के मंज़र पर टिकी हैं
कुछ आँखों से हटती नहीं तस्वीर पुरानी
औरत के इसी रूप से डर जाते हैं अब लोग
आँचल भी नहीं सर पे नहीं आँख में पानी
तालाब है, नदियाँ हैं, समुन्दर है पर अफ़सोस
हमको तो मयस्सर नहीं इक बूंद भी पानी
छप्पर हो, महल हो, लगे इक जैसे ही दोनों
घर के जो समझ आ गए ‘श्रद्धा’ को मआनी
वो ही तूफानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफ़ानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
मैं जो हँसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख़्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं
ज़िंदगी, मौत, जुदाई और मिलन एक जगह
एक ही रात में कितने दिए जल जाते हैं
आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की ख़बर से भी दहल जाते हैं
हमको ज़ख़्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
कैसे ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं
मेरे घर के रास्ते में आसमाँ और कहकशां हैं
लहलहाते खेत, पर्वत, वादियाँ और गुलसितां हैं
मेरे घर के रास्ते में आसमाँ और कहकशां हैं
उनकी ही साजिश की कश्ती को किनारा मिल गया है
जिनको हासिल हिकमतों से घर की सारी कुंजियाँ हैं
ज़िन्दगी के सब मसाइल तूने भी झेले हैं ‘श्रद्धा’
फिर तेरी ग़ज़लों में ग़ालिब-मीर से तेवर कहाँ हैं
मुस्कराना मुझे भी आता है
मुस्कराना मुझे भी आता है
बेसबब कौन मुस्कराता है
भूलना चाहती हूँ मैं जिसको
क्यूँ वही शख्स याद आता है
किसको को है इंतज़ार खुशियों का
रेत पर कौन घर बनाता है
सामने आइना मेरे रख कर
क्यूँ नज़र से मुझे गिराता है
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
सूख जाएगा समुन्दर देखना
अपनी आदत, अपने अन्दर देखना
देखना खुद को निरंतर देखना
हर बुलंदी पर है तन्हाई बहुत
सख्त मुश्किल है सिकंदर देखना
झूठ-सच का फैसला लेना हो जब
चीखता है कौन अन्दर देखना
शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
देखना मेरा मुक़द्दर देखना
खून जिनका धर्म और ईमान है
उनके छज्जे पर कबूतर देखना
गर यूँ ही खुदगर्ज़ियाँ बढती रहीं
लोग हो जाएँगे पत्थर देखना
अश्क का दरिया न बह पाया अगर
दिल भी हो जाएगा बंजर देखना
मेरा और साहिल का रिश्ता है अजब
दोनों के रस्ते में पत्थर, देख ना !
प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
मुद्दतों हमने किया, पागलपन
हमने आवाज़ उठाई हक की
जबकि लोगों ने कहा, पागलपन
जाने वालों को सदा देने से
सोच क्या तुझको मिला, पागलपन
लोग सच्चाई से कतरा के गए
मुझ पे ही टूट पड़ा, पागलपन
जब भी देखा कभी मुड़ कर पीछे
अपना माज़ी ही लगा, पागलपन
खो गए वस्ल के लम्हे “श्रद्धा”
मूंद मत आँख, ये क्या पागलपन
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी
जब कभी मुझको गम-ए-यार से फुर्सत होगी
मेरी गजलों में महक होगी, तरावत होगी
भुखमरी, क़ैद, गरीबी कभी तन्हाई, घुटन
सच की इससे भी जियादा कहाँ कीमत होगी
धूप-बारिश से बचा लेगा बड़ा पेड़ मगर
नन्हे पौधों को पनपने में भी दिक्क़त होगी
बेटियों के ही तो दम से है ये दुनिया कायम
कोख में इनको जो मारा तो क़यामत होगी
आज होंठों पे मेरे खुल के हंसी आई है
मुझको मालूम है उसको बड़ी हैरत होगी
नाज़ सूरत पे, कभी धन पे, कभी रुतबे पर
ख़त्म कब लोगों की आखिर ये जहालत होगी
जुगनुओं को भी निगाहों में बसाए रखना
काली रातों में उजालों की ज़रूरत होगी
वक़्त के साथ अगर ढल नहीं पाईं ‘श्रद्धा’
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना
किसी उजड़े हुए घर को बसाना
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना
यकीनन आग बुझ जाती है इक दिन
मुसलसल गर पड़े ख्वाहिश दबाना
वो उस पल आसमां को छू रहा था
ये क्या था, उसका चुपके से बुलाना
ये सच है राह में कांटे बिछे थे
हमें आया नहीं दामन बचाना
हवा में इन दिनों जो उड़ रहे हैं
ज़मीं पर लौट आएँ फिर बताना
गिरे पत्ते गवाही दे रहे हैं
कभी मौसम यहाँ भी था सुहाना
परिंदा क्यूँ उड़े अब आसमाँ में
उसे रास आ गया है क़ैदखाना
अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
ऐसे रोते हुए लोगों को संभाला मैंने
शाम कुछ देर ही बस सुर्ख़ रही, हालांकि
खून अपना तो बहुत देर उबाला मैंने
बच्चे कहते हैं कि एहसान नहीं फ़र्ज़ था वो
अपनी ममता का दिया जब भी हवाला मैंने
कभी सरकार पे, किस्मत पे, कभी दुनिया पर
दोष हर बात का औरों पे ही डाला मैंने
लोग रोटी के दिलासों पे यहाँ बिकते हैं
जब कि ठुकरा दिया सोने का निवाला मैंने
आप को शब् के अँधेरे से मुहब्बत है, रहे
चुन लिया सुबह के सूरज का उजाला मैंने
आज के दौर में सच बोल रही हूँ ‘श्रद्धा’
अक्ल पर अपनी लगा रक्खा है ताला मैंने
ये सीढ़ियाँ ही ढलान की हैं
समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ तो ढलान की हैं
ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
चिताएँ ये संविधान की हैं
मिठाइयाँ बस वो ही हैं फीकी
जो सब से ऊँची दुकान की हैं
फसाद दिल में है और लब पर
सदाएँ अम्न ओ अमान की हैं
खुलूस, नेकी, वफ़ा, भलाई
ये खूबियाँ बस बयान की हैं
गुनाह की हैं, गवाह वो भी
जो खिड़कियाँ उस मकान की हैं
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें किस खुशगुमान की हैं ?
वो पर क़तर कर ये बोला ‘श्रद्धा’
खुली हदें आसमान की हैं
टूटे हुए दिल की है, बस इतनी सी कहानी
शीशे के बदन को मिली पत्थर की निशानी
टूटे हुए दिल की है बस इतनी-सी कहानी
फिर कोई कबीले से कहीं दूर चला है
बग़िया में किसी फूल पे आई है जवानी
कुछ आँखें किसी दूर के मंज़र पर टिकी हैं
कुछ आँखों से हटती नहीं तस्वीर पुरानी
औरत के इसी रूप से डर जाते हैं अब लोग
आँचल भी नहीं सर पे नहीं आँख में पानी
तालाब है, नदियाँ हैं, समुन्दर है पर अफ़सोस
हमको तो मयस्सर नहीं इक बूंद भी पानी
छप्पर हो, महल हो, लगे इक जैसे ही दोनों
घर के जो समझ आ गए ‘श्रद्धा’ को मआनी
वो ही तूफानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफ़ानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
मैं जो हँसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख़्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं
ज़िंदगी, मौत, जुदाई और मिलन एक जगह
एक ही रात में कितने दिए जल जाते हैं
आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की ख़बर से भी दहल जाते हैं
हमको ज़ख़्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
कैसे ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं
मेरे घर के रास्ते में आसमाँ और कहकशां हैं
लहलहाते खेत, पर्वत, वादियाँ और गुलसितां हैं
मेरे घर के रास्ते में आसमाँ और कहकशां हैं
उनकी ही साजिश की कश्ती को किनारा मिल गया है
जिनको हासिल हिकमतों से घर की सारी कुंजियाँ हैं
ज़िन्दगी के सब मसाइल तूने भी झेले हैं ‘श्रद्धा’
फिर तेरी ग़ज़लों में ग़ालिब-मीर से तेवर कहाँ हैं
मुस्कराना मुझे भी आता है
मुस्कराना मुझे भी आता है
बेसबब कौन मुस्कराता है
भूलना चाहती हूँ मैं जिसको
क्यूँ वही शख्स याद आता है
किसको को है इंतज़ार खुशियों का
रेत पर कौन घर बनाता है
सामने आइना मेरे रख कर
क्यूँ नज़र से मुझे गिराता है
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
सूख जाएगा समुन्दर देखना
अपनी आदत, अपने अन्दर देखना
देखना खुद को निरंतर देखना
हर बुलंदी पर है तन्हाई बहुत
सख्त मुश्किल है सिकंदर देखना
झूठ-सच का फैसला लेना हो जब
चीखता है कौन अन्दर देखना
शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
देखना मेरा मुक़द्दर देखना
खून जिनका धर्म और ईमान है
उनके छज्जे पर कबूतर देखना
गर यूँ ही खुदगर्ज़ियाँ बढती रहीं
लोग हो जाएँगे पत्थर देखना
अश्क का दरिया न बह पाया अगर
दिल भी हो जाएगा बंजर देखना
मेरा और साहिल का रिश्ता है अजब
दोनों के रस्ते में पत्थर, देख ना !
प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
मुद्दतों हमने किया, पागलपन
हमने आवाज़ उठाई हक की
जबकि लोगों ने कहा, पागलपन
जाने वालों को सदा देने से
सोच क्या तुझको मिला, पागलपन
लोग सच्चाई से कतरा के गए
मुझ पे ही टूट पड़ा, पागलपन
जब भी देखा कभी मुड़ कर पीछे
अपना माज़ी ही लगा, पागलपन
खो गए वस्ल के लम्हे “श्रद्धा”
मूंद मत आँख, ये क्या पागलपन
कीड़ा मीठे में पड़ते देखा है
हमने गुलशन उजड़ते देखा है
भाई-भाई को लड़ते देखा है
इतनी वहशत जुदाई से ‘तौबा’
ख़्वाब तक में बिछड़ते देखा है
बोझ नजदीकियाँ न बन जाएँ
कीड़ा मीठे में पड़ते देखा है
एक बस दिल की बात सुनने में
हमने रिश्ता बिगड़ते देखा है
अब तो गर्दन बचाना है मुश्किल
पाँव उनको पकड़ते देखा है
हार दुनिया ने मान ली “श्रद्धा”
जब तुझे जिद पे अड़ते देखा है
ज़ीस्त उम्मीद के साये में ही पल जाए फिर …
सर से पानी जो कभी अपने निकल जाए फिर
बुज़दिली अपनी भी हिम्मत में बदल जाए फिर
धूप आने के कुछ आसार तो दिखलाई पड़े
ज़ीस्त[1]उम्मीद के साये में ही पल जाए फिर
पूछ ले हाल हमारा कभी वो भूले से
ज़िंदगी ठोकरें खाती है सम्हल जाए फिर
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में मेरा दिन गुज़रे
और हर रात तेरी याद में ढल जाए फिर
वो कहे गर तो खिलौनों की तरह बन जाऊँ
कुछ नहीं और, तबीयत ही बहल जाए फिर
वो सारे ज़ख़्म पुराने, बदन में लौट आए
वो सारे ज़ख़्म पुराने, बदन में लौट आए
गली से उनकी जो गुज़रे, थकन में लौट आए
हवा उड़ा के कहीं दूर ले गई जब भी
सफ़र तमाम किया और वतन में लौट आए
जो शहरे इश्क था, वो कुछ नहीं था, सहरा था
खुली जो आँख तो हम फिर से वन में लौट आए
बहार लूटी है मैंने कभी, कभी तुमने
बहाने अश्क़ भी हम ही चमन में लौट आए
ये किसने प्यार से बोसा रखा है माथे पर
कि रंग, ख़ुशबू, घटा, फूल, मन में लौट आए
गए जो ढूँढने खुशियाँ तो हार कर “श्रद्धा”
उदासियों की उसी अंजुमन में लौट आए
बना लें दोस्त हम सबको, ये रिश्ते रास आएँ क्यूँ
बना लें दोस्त हम सबको, ये रिश्ते रास आएँ क्यूँ
बने सागर अगर दुश्मन किनारे फिर बचाएँ क्यूँ
बजे जो साज़ महफ़िल में, हमारे हो नही सकते
हम इन टूटे हुए सपनों को आखिर गुनगुनाएँ क्यूँ
लहू बहता अगर आँखों से तो लाता तबाही, पर
मेरे ये अश्क के कतरे किसी का घर जलाएँ क्यूँ
बचेंगे वो कि जिनमें है बचे रहने की बेताबी
जिन्हें मिटने की आदत हो उन्हें हम फिर बचाए क्यूँ
ये शबनम तो नहीं ‘श्रद्धा’ तेरी ग़ज़लें हैं शोलों सी
किसी को ये रिझाएँ क्यूँ किसी के दिल को भाएँ क्यूँ
यादों की जागीर बना कर रहते हैं
यादों की जागीर बना कर रहते हैं
अश्कों को तक़दीर बना कर रहते हैं
इंसां बनना जहाँ कठिन हो जाता है
खुद को वहाँ हम पीर बना कर रहते हैं
कमज़र्फी को खेल लकीरों का कह कर
रस्मों की ज़ंज़ीर बना कर रहते हैं
होता है जब रंग नुमायाँ दुनिया का
तब हम दिल को मीर बना कर रहते हैं
साथ गुज़ारी रातों की खुश्बू से हम
ख़्वाबों की ताबीर बना कर रहते हैं
रात जागे हो कि रोए हो, रहे हो बेकल
रात जागे हो कि रोए हो, रहे हो बेकल
ये सभी राज़ छुपा लेता है अक्सर काजल
बारिशें, ओस, घटा, आँख, सभी में पानी
काश पत्थर की भी आँखों में कभी आये जल
अक्स खोते हैं अँधेरे में, सुना था हमने
अब चकाचौंध भी चेहरों को करे है ओझल
बोझ बनती है कोई चीज़ अगर दिल पे कभी
याद आ जाता है उस पल मुझे माँ का आँचल
अब तो शीशे ने मुक़द्दर में बदल माँगा है
चोट पत्थर को लगे वो भी कभी हो घायल
नेक नीयत जो बचानी है तो सीखो “श्रद्धा”
साँप के बीच बचा रहता है कैसे संदल
आखिर, हमारे चाहने वाले कहाँ गए
रोशन थे आँखों में, वो उजाले कहाँ गए
आखिर, हमारे चाहने वाले कहाँ गए
रिश्ते पे देख, पड़ गया अफवाह का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए
गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए
आग़ाज़ अजनबी की तरह, हमने फिर किया
काँटे मगर दिलों से निकाले कहाँ गए
मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए
बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए
“श्रद्धा” के ख़्वाब रेत के महलों की तरह थे
तूफ़ान में निशाँ भी संभाले कहाँ गए
यूँ प्यार को आज़माना नहीं था
दूरी को अपनी बढ़ाना नहीं था
यूँ प्यार को आज़माना नहीं था
उसने न टोका न दामन ही थामा
रुकने का कोई बहाना नहीं था
चादर पे ख़ुशबू थी उसके बदन की
जागे तो उसका ठिकाना नहीं था
दामन पर उसके कई दाग आए
आँसू उसे यूँ, गिराना नहीं था
उल्फत में कैसे वफ़ा मिलती “श्रद्धा”
किस्मत में जब ये खज़ाना नहीं था
फूल, ख़ुशबू, चाँद, जुगनू और सितारे आ गए
फूल, ख़ुशबू, चाँद, जुगनू और सितारे आ गए
खुद-ब-खुद ग़ज़लों में अफ़साने तुम्हारे आ गए
हम सिखाने पर तुले थे रूह को आदाब ए दिल
पर उसे तो ज़िस्म वाले सब इशारे आ गए
आँसुओं से सींची है, शायद ज़मीं ने फ़स्ल ये
क्या तअज्जुब पेड़ पर ये फल जो खारे आ गए
हमको भी अपनी मुहब्बत पर हुआ तब ही यकीं
हाथ में पत्थर लिए जब लोग सारे आ गए
उम्र भर फल-फूल ले, जो छाँव में पलते रहे
पेड़ बूढ़ा हो गया, वो लेके आरे आ गए
मैंने मन की बात ’श्रद्धा’ ज्यों की त्यों रक्खी मगर
लफ्ज़ में जाने कहां से ये शरारे आ गए
पलट के देखेगा माज़ी तू जब उठा के चराग़
पलट के देखेगा माज़ी, तू जब उठा के चराग़
क़दम-क़दम पे मिलेंगे, मेरी वफ़ा के चराग़
नहीं है रोशनी उनके घरों में, जो दिन भर
सड़क पे बेच रहे थे, बना-बना के चराग़
कठिन घड़ी हो, कोई इम्तिहान देना हो
जला के रखती है राहों में, माँ दुआ के चराग़
ये लम्स तेरा, बदन रोशनी से भर देगा
किताब-ए-ज़िस्म को पढ़ना, ज़रा बुझा के चराग़
करो जो इनसे मुहब्बत, तो हो जहाँ रोशन
यतीम बच्चे नहीं, ये तो हैं ख़ुदा के चराग़
उजाला बाँटना आसान तो नहीं ‘श्रद्धा’
चली हैं आँधियाँ जब भी रखे जला के चराग़
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया
नज़र मिली तो अचानक झुका के वो नज़रें
मेरे सवाल के कितने जवाब छोड़ गया
उसे पता था, कि तन्हा न रह सकूँगी मैं
वो गुफ़्तगू[1] के लिए, माहताब[2] छोड़ गया
गुमान हो मुझे उसका, मिरे सरापे[3] पर
ये क्या तिलिस्म है, कैसा सराब छोड़ गया
सहर[4] के डूबते तारे की तरह बन ‘श्रद्धा’
हरिक दरीचे[5] पे जो आफ़ताब[6] छोड़ गया
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर[1] नहीं आते
बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी ‘श्रद्धा’
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते
कोई पत्थर तो नहीं हूँ कि ख़ुदा हो जाऊँ
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना[1] हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ कि ख़ुदा हो जाऊँ
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत[2] भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ब-रज़ा हो जाऊँ
धूप में साया, सफ़र में हूँ क़बा[3] फूलों की
मैं अमावस में सितारों की ज़िया[4] हो जाऊँ
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ, जो बिखरूँ तो सबा[5] हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो, कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
हँस के जीवन काटने का मशवरा देते रहे
हँस के जीवन काटने का, मशवरा देते रहे
आँख में आँसू लिए हम, हौसला देते रहे.
धूप खिलते ही परिंदे, जाएँगे उड़, था पता
बारिशों में पेड़ फिर भी, आसरा देते रहे
जो भी होता है, वो अच्छे के लिए होता यहाँ
इस बहाने ही तो हम, ख़ुद को दग़ा देते रहे
साथ उसके रंग, ख़ुश्बू, सुर्ख़ मुस्कानें गईं
हर खुशी को हम मगर, उसका पता देते रहे
चल न पाएगा वो तन्हा, ज़िंदगी की धूप में
उस को मुझसा, कोई मिल जाए, दुआ देते रहे
मेरे चुप होते ही, किस्सा छेड़ देते थे नया
इस तरह वो गुफ़्तगू को, सिलसिला देते रहे
पाँव में जंज़ीर थी, रस्मों-रिवाज़ों की मगर
ख़्वाब ‘श्रद्धा’ उम्र-भर फिर भी सदा देते रहे
सबको न गले तुम यूँ लगाया करो ‘श्रद्धा’
सबको न गले ऐसे लगाया करो ‘श्रद्धा’
हमदर्द करीब अपने बिठाया करो ‘श्रद्धा’
बैठो कभी जब अक्स तुम्हारा हो मुकाबिल
आँखें न कभी खुद से चुराया करो ‘श्रद्धा’
जाओ किसी मेले में, कभी बाग़ में टहलो
हंस-हंस के भरम ग़म का मिटाया करो ‘श्रद्धा’
बन्दूक तमंचे ही दिखाते हो तुम अक्सर
बच्चों को परिंदे भी दिखाया करो ‘श्रद्धा’
तुम दर्द की बरसात में रोजाना नहाओ
सूखे में भी मल-मल के नहाया करो ‘श्रद्धा’
आते ही, चले जाने की उलझन को लपेटे
आते हो, तो इस तरह न आया करो ‘श्रद्धा’
रिश्तों को तिजारत की तराजू से न तोलो
कुछ त्याग-समर्पण भी उठाया करो ‘श्रद्धा’
फिर किसी से दिल लगाया जाएगा
अब नया दीपक जलाया जाएगा
फिर किसी से दिल लगाया जाएगा
चाँद गर साथी न मेरा बन सके
साथ सूरज का निभाया जाएगा
रस्म-ए-रुखसत को निभाने के लिए
फूल आँखों का चढ़ाया जाएगा
कर भला कितना भी दुनिया में मगर
मरने पे ही बुत बनाया जाएगा
आईना सूरत बदलने जब लगे
ख़ुद को फिर कैसे बचाया जाएगा
फिर क़रीने से सजा ने एलबम
उनको पहलू में बिठाया जाएगा
मुश्किलें आएँगी जब, ये फैसला हो जाएगा
मुश्किलें आएँगी जब, ये फैसला हो जाएगा
कितने पानी में है सब, इसका पता हो जाएगा
दूरियाँ दिल की कभी जो, बढ़ भी जाएँ हमसफ़र
रोकना मत तुम क़दम, तय फासला हो जाएगा
लाए थे दुनिया में क्या तुम, लेके तुम क्या जाओगे
क्या महल, क्या रिश्ते-नाते, सब जुदा हो जाएगा
तुम दुआ मांगों तो दिल से और रखो उस पर यक़ीन
गर बुरा होना भी होगा, तो भला हो जाएगा
आरज़ू थी फूल इक, दामन में खिल जाए मेरे
और गर ये भी न हो तो क्या ख़ला हो जाएगा
ज़िंदगी के रास्ते होते ही हैं काँटों भरे
साथ ‘श्रद्धा’ भी रही तो हौसला हो जाएगा
बस एक शख्स ऐसा हो , जो टूट कर वफ़ा करे
बस एक शख्स ऐसा हो , जो टूट कर वफ़ा करे
उठाए हाथ जब भी वो, मेरे लिए दुआ करे
अकेले बैठी मैं कहीं जो गुम ख्यालों में दिखूँ
तो आँखें मीच कर मेरी, वो पीछे से हँसा करे
मुझे बताए ग़लतियाँ, दिखाए भी वो रास्ता
वो बन के आइना, मुझे हर एक पल दिखा करे
मुझे खफा करे भी वो , मना भी ले दुलार से
जो खिलखिला के हंस पडूँ, तो एकटक तका करे
वो ख़्वाब पूरे होंगे कब, ये ‘श्रद्धा’ जानती नहीं
कज़ा से पहले चार पल ख़ुशी के, रब अता करे
ये दिल की पीर थी, पिघली, नज़र नहीं आती
फलक पे छा गई बदली नज़र नहीं आती
मुझे ज़मीन भी उजली नज़र नहीं आती
हवा में शोर ये कैसा सुनाई देता है
कहाँ पे गिर गई बिजली, नज़र नहीं आती
चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
इसीलिए कली कुचली नज़र नहीं आती
गिरा पहाड़ से झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
हर एक सम्त नुमाइश का दौर है “श्रद्धा”
यहाँ दुआ भी तो असली नज़र नहीं आती
कितना है दम चराग़ में, तब ही पता चले
कितना है दम चराग़ में, तब ही पता चले
जब कोई ओट भी न रहे और हवा चले
तुझसे मिला था जो कभी, तुझको ही सौंप दूँ
दर पर तेरे इसी लिए आँसू गिरा चले
नफ़रत की आँधियाँ कभी, बदले की आग है
अब कौन लेके परचम-ए- अमनो-वफ़ा चले
चलना अगर गुनाह है, अपने उसूल पर
फिर ज़िंदगी में सिर्फ सज़ा ही सज़ा चले
खंजर लिये खड़े हों अगर मीत हाथ में
कोई हमें बताए वहाँ क्या दुआ चले
जब ख़्वाब रूठ कर गए, ‘श्रद्धा’ ने ये कहा
अब गुफ़्तगू के दौर चले, रतजगा चले
क्यूँ चुप-चुप सा खड़ा है दर्द
चुप-चुप सा क्यूँ खड़ा है दर्द
आँखों में जब हरा है दर्द
लोगों से मिलने-जुलने पर
कम होना था, बढ़ा है दर्द
पलकों की छत पे रुकता क्यूँ
शायद के कुछ डरा है दर्द
यादों की तेज़ आँच में
तप कर कहा, खरा है दर्द
राह-ए-वफा में ‘श्रद्धा’ बस
देखा, लिखा, पढ़ा है दर्द
दिल में जब प्यार का नशा छाया…
दिल में जब प्यार का नशा छाया
पंछी पिंजरे में खुद चला आया
सह गया जो ख़िजां के सारे सितम
गुल उसी पेड़ पर नया आया
सबको कह देगा, आँख का काजल
मेरे दिल ने कहाँ सकूँ पाया
क़ैद-ए-सरहद से है वफ़ा आज़ाद
राज़ ये बादलों ने समझाया
आके पहलू में बैठ जा मेरे
“श्रद्धा” अब तो है बस तेरा साया
लुटा कर जान दिलदारी नहीं की
लूटा कर जान दिलदारी नहीं क़ी
ख़ता हम ने बड़ी भारी नहीं की
खुशी से प्यार है मुझ को भी लेकिन
कभी अश्कों से गद्दारी नहीं क़ी
बता के खुद को मुफ़लिस इस जहाँ में
कहीं रुसवा तो खुद्दारी नहीं की
चरागों को बुझाया गम छिपाने
ये सूरज की तरफ़दारी नहीं की
न हासिल थी तरक्की जब शगल में
कभी दिल पर खिज़ां तारी नहीं की
न कहिए मेरी चाहत को हवस यूँ
कोई हसरत भी बाज़ारी नहीं की
काँटे आए कभी गुलाब आए
काँटे आए कभी गुलाब आए
लेकिन आए तो बेहिसाब आए
रंग उड़ने लगा है चेहरे का
जब भी मेरी वफ़ा के बाब[1] आए
काम आए न कोई चतुराई
ज़िंदगी में अगर अज़ाब आए
दोस्त हो या मेरा वो दुश्मन हो
पास आए तो बेनक़ाब आए
गिरनेवाली है घर की छत “श्रद्धा”
ऐसे आलम में कैसे ख़्वाब आए
आने वाले दिनों में क्या होगा
आने वाले दिनों में क्या होगा
देख लेंगे, जो हौसला होगा
आज जी भर के उसको रोने दो
खुद से मिलना था मिल लिया होगा
फूल में ताज़गी ग़ज़ब की है
जल्द ही शाख़ से जुदा होगा
जिंदगी तू जो हार जायेगी
मौत को इससे हौसला होगा
सबको दुश्मन बना लिया मैंने
कोई मुझसा भी सिरफिरा होगा
अफ़साना-ए-उल्फ़त है, इशारों से कहेंगे
अफ़साना-ए-उल्फ़त है, इशारों से कहेंगे
तुम भी नहीं समझे तो सितारों से कहेंगे
हम सिद्क़-ओ-इबादत से कभी अज़्म-ओ-अदा से
हाँ अहद-ए-मोहब्बत इन्हीं चारों से कहेंगे
आगोश में आ जाए समंदर जो वफ़ा का
हर लम्हे की रूदाद किनारों से कहेंगे
चेहरे से चुराओगे जो सुर्खी-ए-तब्ब्सुम
हम हाल तुम्हारा भी बहारों से कहेंगे
आँखों में जो रोशन हैं, वफ़ा के कई जुगनू
ज़ज़्बात ये “श्रद्धा” के, हज़ारों से कहेंगे
ऐसा नहीं कि हमको मोहब्बत नहीं मिली
ऐसा नहीं कि हमको, मोहब्बत नहीं मिली
बस यह हुआ कि हस्बे-ज़रुरत नहीं मिली
दौलत है, घर है, ख़्वाब हैं, हर ऐश है मगर
बस जिसकी आरज़ू थी वो चाहत नहीं मिली
उससे हमारा क़र्ज़ उतारा नहीं गया
इन आंसुओं की आज भी क़ीमत नहीं मिली
देखे गए हैं जागती आँखों से कितने ख्वाब
हमको ये सोचने की भी मोहलत नहीं मिली
हालाँकि सारी उम्र ही गुज़री है उनके साथ
“श्रद्धा” मेरा नसीब कि क़ुरबत नहीं मिली
हँसती-खिलती सी गुड़िया, इक लम्हे में बेकार हुई
तेरे हाथों से छूटी तो पल भर में मिस्मार हुई
भोली-भाली सी गुड़िया इक, लम्हे में बेकार हुई
ज़ख्मों पर मरहम रखने को, उसने हाथ बढाया था
मेरे जीवन की पीड़ा ही, दोधारी तलवार हुई
गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में छाले लाएगी
जो देती थी साया मुझको, दूर वही दीवार हुई
जिसने मुझे रब से माँगा था, दिन और रात दुआओं में
वो कुर्बत मालूम नहीं क्यूँ, उसके दिल पर भार हुई
मुद्दत से ख़ामोश हैं लब और सन्नाटा है ज़हन में पर
एक अजब सी तन्हाई, महसूस मुझे इस बार हुई
जिसके कारण खिलना सीखा जीवन के हर लम्हे ने
शुकराना उसका श्रद्धा जो महकी और गुलज़ार हुई
क्या वो लम्हा ठहर गया होगा
जब मिटा कर नगर गया होगा
क्या वो लम्हा ठहर गया होगा
आइने की उसे न थी आदत
खुद से मिलते ही डर गया होगा
वह जो बस जिस्म का सवाली था
उसका दामन तो भर गया होगा
अब न ढूंढो कि सुबह का भूला
शाम होते ही घर गया होगा
खिल उठी फिर से इक कली “श्रद्धा”
ज़ख़्म था दिल में, भर गया होगा
हमने छुपा के रक्खी थी सबसे जिगर की बात
हमने छुपा के रक्खी थी सबसे जिगर की बात
गैरों से फिर भी सुन रहे हैं अपने घर की बात
छोटी सी बात से ही तो बुनियाद हिल गई
हम क्या बताएँ आपको दीवार-ओ-दर की बात
बनना सफ़ेदपोश तो कालिख़ लगाना सीख
उंगली उठाना बन गया अब तो हुनर की बात
बातें फक़त बनाने में, जाए न उम्र बीत
लाओ अगर अमल में तो होगी असर की बात
दिलवर के इन्तज़ार में, जब रात ढल गई
महफ़िल में तब से हो रही है चश्मे-तर की बात
मंज़िल मिली तो, हमने ही बदला है रास्ता
“श्रद्धा” है करती शौक़ से अब तो सफ़र की बात
ख़ुश्बू भरे वो बाग़ गुलाबों के खो गए
जितने महल बनाए थे ख़्वाबों के, खो गए
ख़ुश्बू भरे वो बाग़ गुलाबों के खो गए
हर बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गई
क़िस्से वो इंक़लाबी, किताबों के खो गए
तारीख़ मुफ़लिसी ने लिखी है कुछ इस तरह
मिलते नहीं निशान नवाबों के, खो गए
किस फ़िक्र में हैं शहर के सब ख़ुशमिज़ाज लोग
अब सिलसिले भी शोख़ जवाबों के खो गए
बच्चे जो खिलखिला के हँसे तो मुझे लगा
सुलगे हुए जो दिन थे अज़ाबों के, खो गए
हिन्दू-मुस्लिम एक हुए जब, तब जा कर आज़ाद हुए
मौसम बदला, रुत बदली है, यूं ही नहीं दिलशाद हुए
हिन्दू-मुस्लिम एक हुए जब, तब जा कर आज़ाद हुए
रात के सारे अल्हड़ सपने, सुब्ह हुई तो टूट गए
कितने हंसमुख चेहरे रोए, कितने घर बर्बाद हुए
मालिक ने इन्सान बना कर ही भेजा था दुनिया में
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, धर्म यहाँ ईजाद हुए
जो कुर्बानी में शामिल थे, कैसे उन को ग़ैर कहा
एक कौम पर कालिख पोती, हम कितने जल्लाद हुए
हम इस युग के व्यापारी का मान बढ़ाएं, नामुमकिन
नमन हमारा उन को है जो भारत की बुनियाद हुए
नफरत की आंधी ने कितने सपनों को बर्बाद किया
‘श्रद्धा’ लेकिन प्रेम से जाने कितने घर आबाद हुए
मेरे दामन में काँटे हैं, मेरी आँखों में पानी हैं
मेरे दामन में काँटे हैं, मेरी आँखों में पानी है
मगर कैसे बताऊँ मैं ये किसकी मेहरबानी है
खुला ये राज़ मुझ पर ज़िंदगी का देर से शायद
तेरी दुनिया भी फानी है, मेरी दुनिया भी फ़ानी है
वफ़ा नाज़ुक सी कश्ती है ये अब डूबी कि तब डूबी
मुहब्बत में यकीं के साथ थोड़ी बदगुमानी है
ये अपने आइने की हमने क्या हालत बना डाली
कई चेहरे हटाने हैं, कईं यादें मिटानी हैं
तुम्हें हम फासलों से देखते थे औ’र मचलते थे
सज़ा बन जाती है कुरबत, अजब दिल की कहानी है
मिटा कर नक्श कदमों के, चलो अनजान बन जाएँ
मिलें शायद कभी हम-तुम, कि लंबी ज़िंदगानी है
ये मत पूछो कि कितने रंग पल-पल मैंने बदले हैं
ये मेरी ज़िंदगी क्या, एक मुजरिम की कहानी है
किताबे-उम्र का बस इक सबक़ ही याद है मुझको
तेरी कुर्बत में जो बीता वो लम्हा जावेदानी है
वफ़ा के नाम पर ‘श्रद्धा’ न हो कुर्बान अब कोई
कहानी हीर-रांझा की पुरानी थी, पुरानी है
तेरे बगैर लगता है, अच्छा मुझे जहाँ नहीं
तेरे बगैर लगता है, अच्छा मुझे जहाँ नहीं
सरसर[1] लगे सबा[2] मुझे, गर पास तू ए जाँ नहीं
कल रात पास बैठे जो, कुछ राज़ अपने खुल गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ[3] नहीं
मैं जल रही थी मिट रही, थी इंतिहा ये प्यार की
अंजान वो रहा मगर, शायद उठा धुआँ नहीं
कुछ बात तो ज़रूर थी, मिलने के बाद अब तलक
खुद की तलाश में हूँ मैं, लेकिन मेरे निशाँ नहीं
दुश्मन बना जहान ये, ऐसी फिज़ा बनी ही क्यूँ
मेरे तो राज़, राज़ हैं, कोई भी राज़दां नहीं
अंदाज़-ए-फ़िक्र और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
कह कर ग़ज़ल में बात सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
जिस्म सन्दल, मिज़ाज फूलों का
जिस्म सन्दल, मिज़ाज फूलों का
वो सरापा है ताज फूलों का
तुम ही तुम हो जिधर निगाह करूँ
मेरे घर में है, राज फूलों का
बुतपरस्ती भली सही लेकिन
सुन तो लें एहतिजाज[1] फूलों का
ओस से ताज़गी मिले तो मिले
आग से क्या इलाज फूलों का
सारे रंगों की क़द्र करना सीख
फिर बनेगा समाज फूलों का
सब्र जो है यतीम बच्चों को
बस यही है अनाज फूलों का
खुशबूएँ बाँटती रहो ‘श्रद्धा’
हाँ यही है रिवाज फूलों का