दिल में गुलशन
दिल में गुलशन आंख में सपना सुहाना रख।
आस्मां की डालियों पर आशियाना रख।।
हर कदम पर एक मुश्किल ज़िंदगी का नाम।
फिर से मिलने का मगर कोई बहाना रख।।
अर्थ में भर अर्थ की अभिव्यंजना का अर्थ।
शक की सीमा के आगे भी निशाना रख।।
कफ़स का ये द्वार टूटेगा नहीं सच है, मगर।
हौसला रख अपना ये पर फड़फ़ड़ाना रख।।
तेरे जाने के पर जिसे दुहराएगी महफ़िल।
वक्त की आंखों में एक ऐसा फसाना रख।।
दर्द की दौलत से यायावर हुआ है तू।
पांव की ठोकर के आगे ये ज़माना रख।।
जो जले थे कल
जो जले थे कल उन्हीं में था तुम्हारा घर मियां।
सुधर जाओ वक्त कल ये दे न दे अवसर मियां।।
एक दिन सिर आपका भी फूटना तय मानिए।
मत थमाओ बालकों के हाथ में पत्थर मियां।।
मौज झम्मन की रही झटके हुसैनी ने सहे।
ज़िंदगी की राह में होता रहा अक्सर मियां।।
क्यों हिमाकत कर रहा है सच बयां करने की तू।
देखना टकराएंगे माथे से कुछ पत्थर मियां।।
पांव नंगे हैं, चले हम ग़र्म रेती पर सदा।
और कांधों पर सलीबों का रह लश्कर मियां।।
ढूंढ़ती मंज़िल रही पर घर नहीं जिसका मिला।
फिर भी चलता ही रहा दिल एक यायावर मियां।।
एक गीत
धरती, अम्बर, फूल, पांखुरी
आंसू, पीड़ा, दर्द, बांसुरी
मौलसिरी, श्रतुगन्धा, केसर
सबके भीतर एक गीत है
पीपल, बरगद, चीड़ों के वन
सूरज, चन्दा, ऋतु परिवर्तन
फुनकी पर इतराती चिड़िया
दूब धरे कोमल निहार-कन
जलता जेठ, भीगता सावन
पौष, माघ के शिशिराते स्वर
रात अकेली चन्दा प्रहरी
अरूणोदय की किरण सुनहरी
फैली दूर तलक हरियाली
उमड़ी हुई घटायें गहरी
मुखर फूल शरमाती कलियां
मादक ऋतुपति सूखा पतझर
लेकर भीतर स्नेहिल थाती
जले पंतगा दीपक, बाती
खोल रहा कलियों का घूघंट
यह भौंरा नटखट उत्पाती
बिन पानी के मरती मछली
सर्पाच्छादित चन्दन तरूवर
प्यास रूप की, दृढ़ आलिंगन
व्याकुल ऑंखें आतुर चुम्बन
गुथी अंगुलियां नदिया का तट
वे सुध खोये-खोये तन-मन
खड़ी कदम्ब तले वह राधा
टेरे जिसको वंशी का स्वर
प्रियतम का पथ पल-पल ताकें
पथ पर बिछी हुई ये आंखें
काल रात्रि का मारा चकवा
भीग रहीं चकवी की पांखें
कृष्ण-विरह में सूखी जमुना
त्राहि-त्राहि करते जो जलचर
मनु-शतरूपा
मनु-शतरूपा धन्य हैं पाया जीवन-सत्य।
जिन के तप से हो गयी आराधना अपत्य॥
हुई प्रतीक्षा फलवती, कई जन्म के बाद।
मनु-शतरूपा को मिला प्रभु का दिव्य प्रसाद॥
मिली साधना सिद्धि से, फूले मन के कुंज।
मनु-शतरूपा को मिला, दिव्य नेह का पुंज॥
ज्ञान-योग झुककर खड़े, इस इच्छा के द्वार।
जिस के कारण सृष्टि में, हुआ दिव्य अवतार॥
जिनके कारण हो सका, दिव्य निरूप सरूप।
शतरूपा है कल्पना मनु मन का प्रतिरूप॥
वर्तमान की कल्पना, जब तपती धर ध्यान।
स्वर्णिम आगत का तभी पाती है वरदान॥
राग रंग रस कामना, सब कुछ किया हविष्य।
मनु-शतरूपा ने तभी पाया दिव्य भविष्य॥
मनु-शतरूपा ने कहा, अब है कहां विकल्प।
‘तुम समान सुत चाहिए प्रभु तप का संकल्प॥’
प्रकटे प्रभु आनन्दमय, हे तपमूर्ति प्रवीन।
मागों वर जो चाहिए साधक सिध्द अदीन॥
मानवता के भाल पर, लिखा दिव्य दाम्पत्य।
करके अलौकिक साधना दिया दिव्य अपत्य॥
जब जब मांगे साधना दर्शन का वैकल्प।
तब तब मिलता सिद्धि को दिव्य मधुर वात्सल्य॥
सुनो अँधेरा
सुनो अँधेरा बहुत घना है
नहीं सूझता हाथ हाथ को
कोई नन्हा दिया जलाओ
या फिर कोई गीत सुनाओ
संवेदन की राधा मन के आँगन में उदास बैठी है
उधर कन्हैया के प्राणों में कूटनीति कुब्जा पैठी है
आँखें बंद हुई उद्धव की सिंहासन के ध्यान योग में
भ्रमरगीत सो गया समूचा
सूर बनो फिर उसे जगाओ
या फिर कोई गीत सुनाओ
अगर ‘गीत गोविंद’ जगा तो मरुथल में मधुवन महकेगा
मौसम की सूखी डालों पर फिर से वृंदावन चहकेगा
सरिताएँ हो गई विषैली मेघों से तेज़ाब झरा है
सगर सुतों की इस पीढ़ी तक
रस की नई धार पहुँचाओ
या फिर कोई गीत सुनाओ
रोम जल रहा है पर ‘नीरो’ वंशी लिए बचा बैठा है
कुटिल कालिया धीरे-धीरे पूरा सूर्य पचा बैठा है
आज ‘द्वारिका’ के हाथों से वृंदावन निर्वसन हो रहा
दीन सुदामा की प्रतिभा को
कोई नया द्वार दिखलाओ
या फिर कोई गीत सुनाओ
पात-पात से अश्रु झर रहे नंदन की उदास छाती पर
सौ-सौ आशीर्वाद बरसते हैं ऋतुहंता परघाती पर
अस्त्रों की झंकार झनाझन सेनाएँ अब व्यूहबद्ध हैं
कुरुक्षेत्र के तुमुल समर में
अब तो गीता नई सुनाओ
या फिर कोई गीत सुनाओ
मेरी प्यास
नदिया- नदिया, सागर- सागर
पनघट- पनघट, गागर- गागर
मेरी प्यास भटकती दर- दर
भटकन की कैसी मजबूरी
भीतर है अपनी कस्तूरी
संगम- संगम, तीरथ- तीरथ
मन्दिर- मन्दिर, देव- देव घर
मेरी आस भटकती दर- दर
खोज रहा मन गंध सुहानी
युगों- युगों की यही कहानी
उपवन- उपवन, चन्दन- चन्दन
सावन- सावन ,जलधर- जलधर
मेरी सांस भटकती दर- दर
यह कैसा अनजाना भ्रम है
धरा- गगन जैसा संगम है
संत- संत पर, पंथ- पंथ पर
मरघट- मरघट, सुधा कुंड पर
मेरी लाश भटकती दर- दर
गीत का रचाव
शायद कुछ खोज रहा गीत का रचाव
अंतर का स्राव
मुग्ध मानस का भाव
पायल के साथ जगी शर्मीली भोर
कुहकन की भाषा में मुस्काया मोर
बैठकर मुंडेरे पर बोल गया काग
जाग उठे हरियाली मेंहदी के भाग
धूसर पगडंडी से जा लगे नयन
झुकी झुकी लजियाती पलक का झुकाव
शायद यह खोज रहा गीत का रचाव
कांपती हथेली पर जूठन की प्लेट
भूल गयी टीसती पसलियों की चोट
सुना बहुत गंध भरे सपनों का शोर
जानें कब कटी मुग्ध सपनों की डोर
पांव बने गरियाती मेजों की टांग
पांखी से बतियाता मन का फैलाव
शायद यह खोज रहा गीत का रचाव
पथरीली चोटी पर बर्फीली सेज
सागर में सूरज की काया का तेज
केसरिया पाग बंधेभानु का प्रताप
चांदी की रातों का मुक्त मुक्त व्याप
वासंती गोधूली सतरंगा मन
फैली हरियाली पर मोती की आव
शायद यह खोज रहा गीत का रचाव
दुग्धसनी मुस्कानें विहंसते कपोल
चुम्बन के तारों पर नाचे भूगोल
इस्पाती चाहों ने सिंधु को मथा
झुर्री की आंखों में राम की कथा
अनुभव की आंख और जगबीते बोल
आठ- आठ कांधों पर देह का दबाव
शायद यह खोज रहा
विवेकानंद दोहे
उठो, जगो, आगे बढ़ो, पाओ जीवन-साध्य।
तुमने कहा कि राष्ट्र ही, एकमेव आराध्य।।
साँस-साँस में राष्ट्रहित, शब्द-शब्द में ज्ञान।
राष्ट्रवेदिका पर किए, अर्पित तन मन प्राण।।
सत्य और संस्कृति हुए, पाकर तुम्हें महान।
कदम मिलाकर चल पड़े, धर्म और विज्ञान।।
देव संस्कृति का किया, तप-तप कर उत्थान।
करता है दिककाल भी, ॠषि तेरा जयगान।।
अनथक यात्री ने कभी, लिया नहीं विश्राम।
दिशा-दिशा के वक्ष पर, लिखा तुम्हारा नाम।।
रोम-रोम पुलकित हुआ, गाकर दिव्य चरित्र।
जन्म तुम्हें देकर हुई, भारत भूमि पवित्र।।
संत विवेकानंद तुम, शुभ-संस्कृति का कोष।
गुँजा दिया इस सृष्टि में, भारत का जय घोष।।
गीत का रचाव
कभी खुशी कभी दर्द
कभी खुशी से कभी दर्द से दूरी है
जीना जीना नहीं सिर्फ़ मजबूरी है
बीता जीवन इच्छाएँ पूरी करते
पूरेपन की इच्छा मगर अधूरी है
‘सत्यमेव जयते’ सिद्धांत अनूठा है
सच में सच जीते यह कहाँ ज़रूरी है
कुछ अपनों के अधरों पर मुस्कान खिले
अपनी सासों की बस यह मजदूरी है
पोर–पोर महका है भीतर बाहर का
शायद मेरी नाभि जगी कस्तूरी है
मुस्कानों के फूल खिल गए यहाँ वहाँ
शायद ‘यायावर’ मौसम अंगूरी है
ग्रीष्म के दोहे
महाकाव्य-सी दोपहर, ग़ज़ल सरीखी प्रात
मुक्तक जैसी शाम है, खंड काव्य-सी रात
आँधी, धूल, उदासिया और हाँफता स्वेद
धूप खोलने लग गई, हर छाया का भेद
धूप संटियाँ मारती, भर आँखों में आग
सहमा मुरझाया खड़ा, आमों का वह बाग
सूखे सरिता ताल सब, उड़ती जलती धूल
सूखे वंशीवट लगे, उजड़े-उजड़े कूल
तपे दुपहरी सास-सी, सुबह बहू-सी मौन
शाम ननद-सी चुलबुली, गरम जेठ की पौन
छाया थर-थर काँपती, देख धूप का रोष
क्रुद्ध सूर्य ने कर दिया, उधर युद्ध उद्घोष
जीभ निकाले हाँफता, कूकर-सा मध्याह्न
निष्क्रिय अलसाया पड़ा, अज़गर-सा अपराह्न
सिर्फ़ जँवासा ही खड़ा, खेतों में हरषाय
जैसे कोई माफ़िया, नेता बन इतराय
लू के थप्पड़ मारती, दरवाज़े पर पौन
ऐसे में घर से भला, बाहर निकले कौन
यमुना तट से बाँसुरी, टेर रही है आज
शरद-पूर्णिमा चल सखी, रचें रास का साज
यमुना-कूल, कदंब तरु, ब्रज वनिता ब्रजराज
शरद-पूर्णिमा चाँदनी, नाचे सकल समाज
पथहारे को पथ मिला, विरहिन को प्रिय संग
सूर्य किरन दिन को मिली, खिले शरद के रंग
मन घनश्याम हो गया
जब से मन घनश्याम हो गया
तन वृंदावन धाम हो गया
राधा के मुख से जो निकला
वही कृष्ण का नाम हो गया
तन की तपन मिली है तन को
जख़्मों में आराम हो गया
प्रीति रही बदनाम सदा से
लेकिन मेरा नाम हो गया
वे कालिख पीकर भी उजले
वक्त स्वयं बदनाम हो गया
तुम ने जिस क्षण छुआ दृष्टि से
सारा जग अभिराम हो गया
अल्प विराम मृत्यु को जग ने
समझा पूर्ण विराम हो गया
सब गुलाम राजा बन बैठे
राजा मगर गुलाम हो गया
तुम ने आँखों से क्या ढाली
‘यायावर’ ख़ैयाम हो गया
केसर चंदन पानी के दिन
केसर, चंदन, पानी के दिन
लौटें चूनर धानी के दिन
झाँझें झंकृत हो जातीं थीं
जब मधुर मृदंग ठनकते थे
जब प्रणय–राग की तालों पर
नूपुर अनमोल खनकते थे
साँसें सुरभित हो जाती थीं
मोहिनी मलय की छाया में
कुंजों पर मद उतराता था
फागुन के मद की माया में
उस महारास की मुद्रा में
कान्हा राधा रानी के दिन
कटु नीम तले की छाया जब
मीठे अहसास जगाती थी
मेहनत की धूप तपेतन में
रस की गंगा लहराती थी
वे बैन, सैन, वे चतुर नैन
जो भरे भौन बतराते थे
अधरों के महके जवाकुसुम
बिन खिले बात कह जाते थे
मंजरी, कोकिला, अमलतास
ऋतुपति की अगवानी के दिन
फैली फसलों पर भोर–किरन
जब कंचन बिख़रा जाती थी
नटखट पुरवा आरक्त कपोलों
का घूँघट सरकाती थी
रोली, रंगोली, सतिये थे
अल्पना द्वार पर हँसता था
होली, बोली, ठिठोलियाँ थीं
प्राणों में फागुन बसता था
फिर गाँव गली चौबारों में
खुशियों की मेहमानी के दिन