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चन्द्र प्रकाश श्रीवास्तव की रचनाएँ

ताकि फिर न रोए बुद्ध

प्रथम रुदन नहीं यह
इससे पहले भी कई बार रोया बुद्ध
कलिंग का बुद्ध
हिरोशिमा का बुद्ध
पोखरन का बुद्ध
फिलीस्तीन का बुद्ध
अयोध्या का बुद्ध
गोधरा-अक्षरधाम का बुद्ध
न्यूयार्क- बामियान का बुद्ध

पहली बार जब रोया था बुद्ध
अंकित हो गए थे एक सम्राट के आँसू
स्तम्भों और शिलालेखों में
शिलालेख संकल्पों के
शिलालेख एक विजेता के प्रायश्चित के

ये शिलालेख नहीं, प्रेम कविताएँ हैं
जिन्हे
हर किसी को पढ़ना चाहिए
ताकि
फिर न रोए कोई बुद्ध
गाँधी या जीसस क्राइस्ट

सड़क

यह सड़क सबकी है
साइकिल पर बल्टा लटकाए दूध वालों की
मिचमिची आँखों पर ऐनक चढ़ाए
स्कूटर पर टंगे
दफ़्तर जाते हुए बाबुओं की
पीठ पर क़िताबों का बस्ता लादे
पानी की बोतल टाँगे
रंग-बिरंगी यूनीफ़ार्म में स्कूल जाते हुए
हँसते-खिलखिलाते बच्चों की
घर-बार गिरवी रखकर शहर के बड़े डॉक्टर के पास
या मुकदमे की तारीख़ पर जा रहे
गाँव कस्बों के अनगिनत लोंगों की

यूँ तो यह सड़क
आवारा जानवरों
हाथ पसारे अधनंगे भिखरियों तक की है
कल इसी सड़क पर
बेंतों की मार से लहूलुहान
पड़ा था एक गँवार दूधवाला

उसे नहीं पता
यह सड़क किसी की नहीं होती
जब ?
जब इस पर बाँस-बल्लियाँ सजती हैं
जब इस पर सायरन और सीटियाँ बजती हैं
जब इस पर लाल नीली बत्तियाँ दौड़ती हैं
एयरपोर्ट से सर्किट हाउस तक

पिता ने कहा था

बेटा यह आकाश तुम्हारा है
तब शायद वह
आकाश की ओर सधी गिद्ध-निगाहों से परिचित नहीं थे
पिता ने कहा था-
धरती पर पसरी हवा तुम्हारी है
हवा में बारूदी गन्ध
तब शायद पूरी तरह घुल नहीं पाई थी
पिता ने ही बताया था-
नदियों, झीलों, सागरों में लहराता हुआ
सारा जल मेरा है
तब शायद उन्हे
पानी के लिए होने वाली छीना-झपटी के बारे में
कुछ भी पता नहीं था

अपने आख़िरी दिनों में पिता ने
आकाश की ओर देखना छोड़ दिया था
खुली हवा में बैठना बन्द कर दिया था
और पानी पीने से मना कर दिया था

जाते-जाते
वह जान चुके थे
कुछ भी नहीं है हमारा
हवा पानी धूप सभी के
कुछ चुनिन्दा दावेदार हैं

हवाएँ नहीं डरतीं

प्रेम-पत्र लिखने वाले को
सूली पर चढ़ा दो
प्रेम-गीत गाने वाले को
तुम चाहे ज़िंदा जला दो
समस्त पाण्डुलिपियाँ महासागर में डुबो दो
फिर भी रोक नहीं पाओगे तुम
गतिमान शब्दध्वनियों को
गमकती हवाओं को

हवाएँ नहीं डरतीं आतताई संगीनों से
धुवाँ-धुवाँ बन जाएँगे शब्द
लिपियाँ तैरेंगी
महासागर की लहरों पर
उड़ेंगे श्वेत कबूतर
क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक

चलो बचा लें

चलो बचा लें
स्वच्छ हवा थोड़ी-सी
थोड़ा-सा साफ़ पानी
और थोड़ी-सी धूप
कल के लिए

बचा लें हम
थोड़ी हँसी
थोड़ी मुस्कान
थोड़ी महक
थोड़ी चहक
थोड़े सपने
और थोड़ी-सी उम्मीद

चलो बचा लें हम
थोड़ी आस्था, थोड़ा विश्वास
कुछ आक्रोश, कुछ सन्तोष

आओ बचा लें
थोड़े फूल
थोड़ी तितलियाँ
कुछ कबूतर कुछ दरख़्त

चलो बचा लें
पायल की रुनझुन
चूड़ियों की खनक
बिंदिया की चमक

चलो बचा लें
ढोल की ढम-ढम
आल्हा कजरी के स्वर
दादी-नानी के किस्से
तीज-त्योहार
जेवनार
संस्कार
और थोड़े मंगलाचार

चलो बचा लें हम
थोड़े से कबीर
थोड़े महावीर
कुछ अराफ़ात
कुछ मण्डेला
गांधी का चरखा
और उनके तीन बन्दर

बचा लें हम चलो
हीर को देवदास को
मीरा को रैदास को

इस क्रूर समय में
आओ बचा लें
थोड़ी धरती, थोड़ा आसमान
थोड़ा सच थोड़ा ईमान
थोड़ी-सी आदमीयत
कुछ कविताएँ
और कुछ शुभकामनाएँ
बहुत कुछ शेष है अभी इस दुनिया में
बचाने के लिए
अपने बच्चों की ख़ातिर

 

लाइलाज

कुछ नहीं हो सकता अब उसका
शहर के बड़े डॉक्टर ने अब जवाब दे दिया है
लाइलाज हो चुकी बीमारी उसकी
जब से होकर आया गॉव से
मिटटी की गंध
उसके भीतर तक समा गई है

नथुनों से प्रविष्ट गंध
श्वास नली, फेफड़ों, धमनियों से होती हुई
कोशिकाओं में पैठ गई है

अक्सर वह नींद में बड़बड़ाता है
नीम‌….
पोखर….
गाय…..
गौरैया….
और न जाने कैसे-कैसे शब्द
घोंसला… घोंसला… चिल्लाते हुए
अचानक दौड़ने लगता है बदहवास
कांक्रीट के जंगल में…..

कहीं तो हूँ मैं

बेटी देख रही है फैशन मैगजीन में
लेटेस्ट डिज़ाइन किया हुआ परिधान
अपने लिए
उसे साबित करना है
लड़कियों के बीच अपने आप को

पत्नी देखती है टी०वी० पर खाना-खजाना
चौंका देगी अबकी बार सबको
किटी-पार्टी में नयी डिश खिलाकर
और साबित हो जाएगा
उसका वज़ूद

बेटा सर्च कर रहा है
धाँसू वेबसाइट
ताकि दास्त फिर न कह सकें
कहीं भी नहीं
कुछ भी नहीं वह
इस भूमण्डल में

और मैं ढूँढ़ रहा हूँ –
कोई कोरा अछूता मुद्दा
शहर, बाज़ार, स्त्री-दलित प्रश्नों से इतर
कोई नया विषय
जिस पर लिख सकूँ
कुछ धमाकेदार
और साबित कर पाऊँ ख़ुद को
अनियतकालीन प्रवाह के ख़िलाफ़

कहीं न कहीं मौज़ूद है कविता
नींद में सोया हुआ बच्चा
इंद्रधनुषी सपने देख जब मुस्कुराता है
महक उठती है मेरी कविता
सिनेमाहाल में
खलनायक की पिटाई पर
जब गूँजती है तालियों की गड़गड़ाहट
चहक उठती है मेरी कविता
किसी हत्यारे को
फाँसी की सज़ा मिलने पर
झलकता है एक सन्तोष
मेरी पत्नी के चेहरे पर

तब….
आश्वस्त होती है कविता
अपनी मौज़ूदगी के प्रति
यह कि
कहीं न कहीं तो वह है ज़रूर

चश्मा

कल दोपहर मुझे धूप
रोज़ से ज्यादा चटख दिखी
हवा कल
ज़्यादा गर्म महसूस हुई
प्यास भी
कुछ ज़्यादा ही लगी
सड़क का कोलतार
कुछ ज़्यादा ही पिघला नज़र आया

कल जो मैं
धूप का रंगीन चश्मा
घर भूल आया था

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