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फूल वाला

माल रोड़ के उस छोर पर
बैठता है फूल बेचने वाला
अविरल बहती छोटी नदी के
किनारों से ढूँढ लया है
तरह-तरह के फूल

हर शाम
भीड़ उस को
अनदेखा कर
दौड़ती है सब्ज़ी-मंडी की ओर

बिरला कोई पुष्प-प्रेमी
जब ठिठकता है तो
छांटता है एक-दो-टहनी
समय को लांघ
खिलते रह सकें
फूल जिन पर सदा

देर रात
जब कुछ पियक्कड़
झूमते हुए निकलने लगते हैं
तो वह भी
मुरझाए फूलों को
कूड़े के ढेर पर डाल कर
खाली छब्बा लिए
कवि मुद्रा में
डग भरते हुए
अँधेरे में ओझल हो जाता है।

गाँव के मन्दिर के प्राँगण में

गाँव के मंदिर प्राँगण में
यहां जीर्ण-शीर्ण होते देवालय के सामने
धूप और छाँव का
नृत्य होता रहता है

यहाँ स्लेट छत की झालर से लटके
लकड़ी के झुमके
इतिहास पृष्ठों की तरह
गुम हो गए है

दुपहर बाद की मीठी धूप को छेड़ता
ठण्डी हवा का कोई झोंका
कुछ बचे झुमकों को हिला कर
विस्मृत युग को जगा जाता है

धूप में चमकती है ऊँची कोठी
पहाड़ का विस्मृत युग
देवदार की कड़ियों की तरह
कटे पत्थर की तहों के नीचे
काला पड़ रहा है
बूढे बरगद की पंक्तियों सा
सड़ रहा है
बावड़ी के तल में

इस गुनगुनी धूप में
पुरानी कोठी की छाया कुछ हिलती है
और लम्बी तन कर सो जाती है

यात्रा की तैयारी

अन्न और जल की तरह ही
मेरे ख़ून में
मेरी हडडियों में
घुल-मिल कर
कहाँ लुप्त हो गए हैं वे सब

आकाश बिना ओर–छोर का
मैं समेट पाया हूँ
एक संकरा-सा टुकड़ा
पहाड़ी पगडंडी-सा
अभी गिरा अभी गिरा
फिर भी
रहा हूँ व्याकुल
बना रहूँ इसी का

आँखें मूंद कर
देखता हूँ जो दृष्य
सराबोर करते हैं मेरे मस्तिष्क को
इसी के सपने
सफेद, भूरे और काले घोड़े
हिन्हिनाते रहते हैं जो मेरी स्मृतियों में
पहाड़ी नदी के पारदर्शी जल में
देखना चाहता हूँ उनके तृप्त चेहरे
उनकी स्मृतियों को साथ लिये
यात्रा की है तैयारी
किस दिन
किस यात्रा की
कौन जाने।

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