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उम्र की दास्तान लंबी है

उम्र की दास्तान लम्बी है
चैन कम है थकान लम्बी है

हौसले देखिए परिंदों के
पर कटे हैं उड़ान लम्बे हैं

पैर फिसले ख़ताएँ याद आईं
कैसे ठहरें ढलान लम्बी है

ज़िंदगी की ज़रूरतें समझो
वक़्त कम है दुकान लम्बी है

झूठ-सच, जीत-हार की बातें
छोड़िए दास्तान लम्बी है

दूर से ही क़रीब लगते हैं

दूर से ही क़रीब लगते हैं
उनसे रिश्ते अज़ीब लगते हैं

उनकी आराइशों[1] से क्या लेना
उनके गेसू सलीब लगते हैं

जो हुकूमत से लड़ते रहते हैं
वो बड़े बदनसीब लगते हैं

नेक नीयत नहीं दुआओं में
लोग दिल से ग़रीब लगते हैं

‘विप्लवी’ सोने की कलम वाले
आज आला अदीब[2] लगते हैं

इबादतख़ाने ढाए जा रहे हैं

इबादतख़ाने ढाए जा रहे हैं
सिनेमाघर बनाए जा रहे हैं

फिरें आजाद क़ातिल और पहरे,
शरीफ़ों पर बिठाए जा रहे हैं

क़लम करना था जिनका सर ज़रूरी
उन्हीं को सर झुकाए जा रहे हैं

सुयोधन मुन्सिफ़ी के भेष में हैं
युधिष्ठर आज़माए जा रहे हैं

लड़े थे ‘विप्लवी’ जिनके लिए हम
उन्हीं से मात खाए जा रहे हैं

आँख का फ़ैसला दिल की तज्वीज़ है

आँख का फ़ैसला दिल की तज्वीज़ है
इश्क़ गफ़लत भरी एक हंसी चीज़ है

आँख खुलते ही हाथों से जाती रही
ख़्वाब में खो गई कौन सी चीज़ है

मैं कहाँ आसमाँ की तरफ देखता
मेरे सजदों को जब तेरी दहलीज़ है

दिल दुखाकर रुलाते हैं आते नहीं
क्या ये अपना बनाने की तज्वीज़ है

हो न पाएगी जन्नत ज़मीं से हंसी
‘विप्लवी’ ज़िन्दगी ही बड़ी चीज़ है

तू हज़ारों ख़्वाहिशों में बँट गई

तू हजारों ख़्वाहिशों में बँट गई
ज़िन्दगी क़ीमत ही तेरी घट गई

सुबह की उम्मीद यूँ रोशन रही
इस भरोसे रात काली कट गई

पहले मुझसे तुम कि मैं तुमसे मिला
ये बताओ किसकी इज़्ज़त घट गई

तिश्नगी सहराओं सी बढती गई
जुस्तजू में उम्र सारी कट गई

‘विप्लवी’ इस हिज्र के क्या वहम थे
हो गया दीदार कड़वाहट गई

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