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विजया सती की रचनाएँ

दोपहरी सूनापन

एक बेहूदा मज़ाक है दोपहर

उसे नज़रअंदाज़ कर देना चाहती हूँ

लेकिन

ये बेरोज़गार सन्नाटा

धरना दिए बैठा है

और मैं

शाम की राह देख रही हूँ-

शायद कोई फैसला हो सके !

बिना शीर्षक-1 

ओ भोर किरन!

मुझे भी थोड़ी स्निग्धता दो,

थोड़ी मस्ती दो, पवन!

पत्तियो! थोड़ा कंपन–

शाम! मुझे सुहानापन दो,

और ओ मेरे अनाम!

बूंद भर ज़िंदगी दो न!

बिना शीर्षक-2

सोचने से मेरी उलझनें बढ़ी हैं

चाहती हूँ, सोचना छोड़ दूँ !

बहरहाल

मेरी उलझनें

बढ़ गई हैं

क्योंकि मैं

सोच रही हूँ

सोचना कैसे छोड़ दूँ ?

बिना शीर्षक-3 

ठहर गए हैं कुछ पल !

घड़ी की सुइयों पर दबाव मैंने नहीं डाला

कैलेण्डर की तारीख़ को भी

दृष्टि से नहीं बांधा

फिर भी अगर ये पल

ठहर गए हैं तो

क्या मैं जीना स्थगित कर दूँ

कुछ देर के लिए ?

हम-1

अपनी उलझनें ख़ुद बढ़ाते हुए हम

जाल में उलझ कर

छटपटाते हैं।

बेवज़ह छोटी-छोटी बातों को

तूल देकर

सूनेपन में

सिमटे रह जाते हैं।

न हम सूखे रेगिस्तान हैं

न अथाह जल-प्रसार में

अलग छाए टापू

फिर क्यों

एक-दूसरे से

इस तरह

कट जाते हैं ?

हम-2 

आज हम

सपनों को आकार देंगे

कल उन्हें रंगेंगे

और परसों…

कौन जाने तब तक

हम

रहेंगे, न रहेंगे!

पल भर के सम्वेदन

1.

हर साल

नए ढंग से आता है हर मौसम

मन भी क्या

कोई मौसम है ?

2.

एक सुबह

उस दिन हुई थी

और एक आज है!

मुझे नहीं मालूम

दोनों के फ़र्क का

मन से क्या रिश्ता है ?

3.

मैंने सहजता में ज़िंदगी को पाया

तुमने मुझ में क्या पाया ?

4.

सोए हुए को जगाना चाहिए-

मैंने कहा

और जागा था सागर अगाध एक उस दिन

आश्चर्य कि वह

खारा भी नहीं था!

5.

सुबह-शाम चहका करती थी-

बुलबुल

वह हो गई ग़ुम

एक झौंके में तपती दोपहर में

बदली हूँ मैं!

प्रतीक्षा

मैं प्रतीक्षा करती हूँ

फिर लौटेगा वो मौसम

हवाएँ संदेश ले आएंगी

छँट जाएगा औपचारिक कुहासा

अंतरंग आत्मीयता छा जाएगी

बंधा न रहेगा आह्लाद

अकुलाहट को भी

शब्द मिल जाएंगे

अभिमान की दीवार ढहेगी मेरे मन!

पहचान फिर उभर आएगी।

मैं जानती हूँ इसीलिए तो

सूर्यास्त के रंगों को आँखों में भर कर

प्रतीक्षा करती हूँ

सूर्योदय की !

महानगर में

मैं खुश हूँ

कि राह चलते

मुझ से बतिया लेती है हवा

ले नहीं उड़ती शब्दों को

पर अर्थ समझ लेती है !

जिन बंधी यात्राओं का सिलसिला

ख़त्म होने में नहीं आता

वहाँ भी ख़ुश हूँ मैं

कितने धीरज से सहती हैं रोज़ मुझे

ये काली लम्बी सड़कें !

फिर ये घर-आंगन

खपरैल की टूटी छत

बिख़र गया है यहीं मेरा

हास-उल्लास-आक्रोश

इन्होंने भी नहीं बनाया

किसी बात का बतंगड़ !

भाग-दौड़ के शहर की

औपचारिक व्यस्तताएँ निभाते

किन्हीं आँखों में उभरी है जब

आत्मीय पहचान

मैं भरपूर जी ली हूँ!

तब और अब

मन अधिक सम्पन्न था पहले

घूमा था ऊँची पहाड़ी-नदी तट

तंग गलियाँ और बाज़ार

स्वस्थ पिता की उंगलियाँ थाम!

सहेजे थे काँस-फूल अौर रंगीन पत्थर यात्राओं में

कभी ठिठक-ठहर जाते थे क़दम

और झड़ते प्रश्न फैली आँखों से बेहिसाब!

उत्तर सब थे उनके पास

और था कहानियों से भरा बस्ता

जिसमें से झाँकते थे

टाम काका

वेनिस के सौदागर

और पात्र पंचतंत्र के !

रीतता नहीं था कभी मन

ऐसा भरापन था

भीतर-बाहर

पिता की बूढ़ी उंगलियाँ अब

नहीं थामी जाती

तेज़ है रफ़्तार और राहें बेहिसाब

रोज़ होते हैं कई किस्से

का‌लेज का मंच कभी सूना नहीं रहता!

बहुत सम्पन्न है अब

आसपास की दुनिया

पर निपट अकेला छूट जाता है

मन कभी-कभी

वह सम्पन्नता शायद

अब नहीं रही!

एक प्रश्न

तुमने भी देखा होगा

बरसने से पहले

बदराया आसमान

नीली ज़मीन पर

सफ़ेद फूलों-सा छाया आसमान

तुमने भी देखा होगा

सूर्योदयी कलरव के बीच

लजीली अंगडाई लेता

गुलाबी आसमान

भरी दोपहर

बुरी तरह तमतमाया आसमान

साँझ ढले थका-मांदा पीला पड़ा आसमान

और कभी ठहर कर

हवा में हाथ हिलाता

धब्बेदार आसमान

तुमने भी तो देखा होगा!

फिर हताशा क्यों ?

इतने रंग बदलता है जब आसमान

हम तो फिर इंसान हैं!

शाम 

भावभीना सूरज जब

रुक-रुक कर चलता है

पहाड़ी के ऊपर से

नीचे को ढलता है

और मेरे आंगन के ठूँठ पर

वही अकेली चिड़िया

मंद-गहरे स्वर में किसी को पुकारती है

तब

घर की अकेली सीढ़ी पर बैठ कर मैं

बड़ा विश्राम पाती हूँ

भूलता-भूलता-सा कुछ याद आ जाता है

याद आते-आते कुछ

भूल जाता है

बीत ही तो जाती है

एक और शाम !

जंगल

मेरी सुबह खो गई है

मेरी शाम खो गई है

और अब

दोपहरी धूप का अम्बार है- मैं हूँ जिसकी कोई पहचान नहीं!

मेरी सादगी खो गई है

मेरी सरलता खो गई है

और अब ढेर-ढेर संशय के तूफ़ान हैं- मैं हूँ जिसकी कोई राह नहीं!

मेरे शब्द खो गए हैं

उनके अर्थ खो गए हैं

और अब गूँजते हुए प्रश्न हैं- मैं हूँ कहीं कोई उत्तर नहीं!

सनसनाता एक जंगल है

जिसमें मैं बिल्कुल खो गई हूँ!.

स्मृतियाँ- 1 

किस एक स्मृति से है मन की संपन्नता का नाता?
पूछती हूँ अपने-आप से
कितना संपन्न था पहले यह मन
चाँदनी चौक की तंग गलियों में घूमता पिता के साथ
दो अक्तूबर से शुरू होती थी खादी पर छूट
और हम चुनते थे उनके साथ छोटे-छोटे रंगीन टुकड़े
कुछ न कुछ बना ही देती थी माँ –
मेरी सुन्दर-सी फ्राक, कुर्सी की गद्दी का खोल या फिर मेजपोश ही
थकता कहाँ था यह मन
ऊँची पहाड़ी के मंदिर तक उड़ा चला जाता था
स्वस्थ पिता की उँगलियाँ थाम नवरात्र के मेले में
फतेहपुरी के भीड़ भरे बाज़ार की हलचल के बीच
खील-बताशे खरीदता दिवाली के आसपास!
उस सम्पन्नता का है कहीं सानी?
जब झड़ते थे प्रश्न बेहिसाब
बचपन की फैली आँखों से
उत्तर सब थे पिता के पास
और था कहानियों से भरा बस्ता
जिसमें झाँकते थे –
टाम काका, वेनिस का सौदागर और पात्र पंचतंत्र के
यमुना किनारे की रेत से कभी बटोरते हम काँस फूल
नंगे पाँव ही हो आते थे उनके साथ
छोटी-सी क्यारी में बोए मक्का तोड़ने
या उलझी लता से खींचते थे साथ मिलकर
नरम हरी तोरियाँ!
सुबह जागती-सी नींद में गूँजता स्वर
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
संध्या वेला को त्र्यम्बकं यजामहे का विशुद्ध अटूट क्रम
यह है पिता के साथ की समृद्ध दुनिया अब भी मेरे भीतर

बहुत बढ़-चढ़ तो गई ही है बाहर भी सब ओर
मेरे आस-पास की दुनिया
सूना रहता ही कहाँ है
कामकाजी अभिनय से भरा जीवन-मंच?
मुश्किल से मिले निपट अकेले क्षणों में कभी
याद करना बीते हुए माँ-पिता की दुनिया में अपनी व्याप्ति
और खो देना समूची रिक्तता
लगता नहीं
है कहीं इस सम्पन्नता का कोई सानी!

स्मृतियाँ- 2

जिंदगी को गणित के सवालों-सा हल करना
मुझे कभी नहीं आया
कभी भाया ही नहीं जमा-घटा-गुणा-भाग
बचपन से ही
कविता के आसपास रहती आई जिंदगी मेरी
रसोई में बर्तनों की खटपट के बीच माँ गुनगुनाती –
गूँजते थे कानों में वे घुँघरू शब्द
जिन्हें पगों में बाँध नाचती थी मीरा!
बाहर खुले बरामदे में बैठ हम सुनते
पिता का सधा कंठस्वर
सुबह के उजाले को साथ लाता –
नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं
फिर कस्तूरबा आश्रम की दिनचर्या में भी तो तय था
सुबह शाम की प्रार्थना सभा का समय
जब आश्रम भजनावली से चुने भजनों का समवेत स्वर
धीमे से ऊँचा उठाती थी मैं भी
छात्रावास की सहेलियों के साथ –
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे
अब इस तरह के सवाल क्यों
जिनका कोई हासिल न हो?
मेरे अंत: को निर्मल बना रहे हैं जब तक रहीम रसखान भर्तृहरि
कबीर का अक्खड़ दोहा बल दे जाता है मुझे
जब तक
अज्ञेय का मौन और भवानी के कमल के फूल झरते हैं आसपास
शून्य हो जाने दूँ जीवन का उल्लास
व्यर्थ की जोड़ तोड़ करते!?

स्मृतियाँ- 3

उनके जीवन के साथ
उनके दुख भी गए
वे किसी को कोई दुख न दे गए
न किसी का कुछ ले गए
बहुत कम जो भी जोड़ा था
तन की मेहनत से
मन की लगन से
उसी से था घर भराभरा –
उनके जाने के बाद भी
कई दिनों तक रहेगा
रसोई के भण्डार में
नमक तेल चीनी के साथ
और भी बहुत कुछ उनसे जुड़ा

कोई ऋण बाकी न रहा उन पर
क्या उऋण हो सकेगी संतान?

करेगी वह सभी के साथ
पिता और माँ जैसा निस्वार्थ
और बिना शर्त प्यार?

इसीलिए तो
इतना अभावग्रस्त कर देने वाला है
पिता के बाद माँ का भी चले जाना!

स्मृतियाँ- 4 

घड़ी की सुइयों पर दबाव
मैंने नहीं डाला
कैलेण्डर की तारीख को भी
दृष्टि से नहीं बाँधा
फिर भी अगर
ये पल ठहर गए हैं तो क्या
मैं जीना स्थगित कर दूँ कुछ देर के लिए?

स्मृतियाँ- 5

जैसे पहाड़ पर बादल उमड़ते हैं
घाटी में कोहरा उतरता है
जैसे किसी सुबह जागने पर
बर्फ की चुप्पी घिरी मिलती है,
वैसे ही मेरे मन में
प्यार अकेलापन और थोड़ा-सा दुःख
उमड़ता है
उतरता है
घिरता है
जैसे पहाड़ पर बादल
बरस जाते हैं
कोहरा छँट जाता है और बर्फ भी
पिघल जाती है
वैसे ही मेरे मन का प्यार



जाता है
अकेलापन छँट जाता है
और दुःख भी पिघल जाता है
तुम्हारे पास आकर!

स्मृतियाँ- 6 

खरी धूप में झुलसता रहा
एक आत्मीय आकार
और सधे कदमों में एक ही सुध बाकी थी –
बस छूट जाएगी!

स्मृतियाँ- 7

तब मुझे अच्छे लगते थे
हरे-भरे खेत –
पहाड़ आसमान बादल
और छोटी छोटी नहरें
अच्छे तो अब भी हैं वे सब
पर अब मैं वह कहाँ?

स्मृतियाँ- 8

क्या कोई आता है – फैलाकर हाथ
समेटने को किसी का बिखराव?
क्या कोई खोलता है – मन के उन्मुक्त द्वार
सुलझाने को किसी की उलझन?
क्या कोई पहुँचता है वहाँ – जहां हम अकेले होते हैं और उदास?
या हमें खुद ही आना पड़ता है- उदासी के घेरे के पार ?
और खुद ही ढोना होता है?
पने दर्द का अम्बार

स्मृतियाँ- 9

जब कोई नहीं है साथ
बहुत काफी हैं एक दूसरे के लिए
मैं और मेरा एकांत
सताते नहीं एक-दूसरे को हम
कतराते ही हैं एक दूसरे से
झाँक लेते हैं फ्लैट की खिड़की से
हाथों में हाथ डाल साथ-साथ
कबूतरों की उड़ान बिल्लियों की छलाँग
लछलाई नदी के किनारे की चहलकदमी
अनूठी शीतलता से भर देती है
मुझे और मेरे एकांत को!

स्मृतियाँ- 10

दोहरे शीशे जड़ी खिड़की से देखती हूँ बाहर की दुनिया
और भरपूर जीती हूँ
अकेलापन नहीं यह मेरा एकांत है
जो मुझे रचता है!

स्मृतियाँ- 11

सोए हुए को जगाना चाहिए – कहा था अपने आपसे
जाग उठा सागर अबाध एक उस दिन
आश्चर्य कि वह खारा भी नहीं था!

स्मृतियाँ- 12

अपने-अपने कोटर में जा दुबके सब
मौन वृक्ष की छाया लंबी होती चली गई!

स्मृतियाँ- 13

तुमने भी देखा न
नीली जमीन पर सफेद फूलों-सा छाया आसमान,
कभी सँवलाया-बदराया आसमान,
डूबते सूरज की लाली में रँगा
और कभी भरी दोपहरी
बेतरह तमतमाया आसमान,
देर तक ठहर कर हवा में हाथ हिलाता
धब्बेदार आसमान – तुमने भी देखा न?
इतने रंग बदलता है आसमान – हम तो फिर इंसान हैं!

बातचीत अपने आप से

अभी अपने कमरे में थी तुम
किताबों के पन्ने पलटती –
कविताएँ पढ़ती,
कब जा चढ़ी कंचनजंघा पहाड़
जिसे तुमने कभी देखा ही नहीं?

और उस दिन बरसात के बाद
दिखा था जब इन्द्रधनुष
क्यों देखती ही रह गई थी तुम
जबकि सीटियों पर सीटियाँ दे रहा था
कुकर रसोई में?
क्यों तुमने बना लिया है मन ऐसा
कि झट जा पहुँचता है वह
पुरी के समुद्र तट पर?
कभी फूलों की घाटी से होकर
मैदान तक दौड़ जाता है तुम्हें बिना बताए?

अब इसी समय देखो न –
कितने-कितने चेहरे और दृश्य और
उनसे जुड़ी बातें
आ-जा रही हैं तुममें
बाँसुरी की तान के साथ झूमता
नीली आँखों वाले लड़के का चेहरा,
घर की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठी
उस बच्ची का चेहरा
जिसके ममी-पापा आज फिर लड़े हैं!
अब तुम्हारे भीतर करवट ले रहा है
बचपन के विद्यालय में उगा
बहुत पुराना इमली का पेड़
बस दो ही पल बीते
कि चल दी
दिल्ली परिवहन की धक्का-मुक्की के बीच राह बनाती
सीधे अपने प्रिय विश्वविद्यालय परिसर !
अब सुनोगी भी या
मकान बनाते मजदूरों को देख
बस याद करती रहोगी कार्ल मार्क्स!
कितनी उथल-पुथल से भरा
बेसिलसिलेवार-सा
एक जमघट है तुम्हारा मन
यह तो कहो कि क्यों
एक-सा स्पंदित कर जाता है तुम्हें
फिराक का शे’र
और तेंदुलकर का छक्का?

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