मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे ।
हम अपने इस कालखण्ड का एक नया इतिहास लिखेंगे ।
सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम[1] सजाकर,
उन दलितों की करुण कहानी मुद्रा[2] से रैदास लिखेंगे ।
प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से खारिज़ करके,
ये ‘ओशो’ के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष लिखेंगे ।
एक अलग ही छवि बनती है परम्परा भंजक होने से,
तुलसी इनके लिए विधर्मी, देरिदा[3] को ख़ास लिखेंगे ।
इनके कुत्सित सम्बन्धों से पाठक का क्या लेना-देना,
लेकिन ये तो अड़े हैं ज़िद पे अपना भोग-विलास लिखेंगे ।
ये महाभारत है जिसके पात्र सारे आ गए
ये महाभारत है जिसके पात्र सारे आ गए ।
योगगुरू भागे तो फिर अन्ना हजारे आ गए ।
ठाकरे जो भी कहे वो बालीबुड दोहराएगा,
इसलिए पण्डाल में फ़िल्मी सितारे आ गए ।
बाबा के चरणों में है खाता विदेशी बैंक का,
कैसे-कैसे भक्तगण जमुना किनारे आ गए ।
आडवाणी, गडकरी आए तो पर्दा उठ गया
सौदागर हैं वोट के दामन पसारे आ गए ।
विकट बाढ़ की करुण कहानी, नदियों का संन्यास लिखा है
विकट बाढ़ की करुण कहानी, नदियों का संन्यास लिखा है ।
बूढ़े बरगद के वल्कल[1] पर सदियों का इतिहास लिखा है ।
क्रूर नियति ने इसकी क़िस्मत से कैसा खिलवाड़ किया है,
मन के पृष्ठों पर शाकुन्तल, अधरों पर संत्रास[2] लिखा है।
छाया मदिर महकती रहती, गोया तुलसी की चौपाई,
लेकिन स्वप्निल स्मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।
लू के गर्म झकोरों से जब पछुवा तन को झुलसा जाती,
इसने मेरी तन्हाई के मरुथल में मधुमास लिखा है ।
अर्द्धतृप्ति, उद्दाम वासना, ये मानव-जीवन का सच है,
धरती के इस खण्डकाव्य पर विरहदग्ध उच्छ्वास लिखा है
जिसके सम्मोहन में पाग़ल, धरती है, आकाश भी है
जिसके सम्मोहन में पाग़ल, धरती है, आकाश भी है ।
एक पहेली-सी ये दुनिया, गल्प भी है, इतिहास भी है।
चिन्तन के सोपान पर चढ़कर चाँद-सितारे छू आए,
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है ।
मानव-मन के द्वन्द्व को आख़िर किस साँचे में ढालोगे,
महारास की पृष्ठभूमि में ‘ओशो’[1] का संन्यास भी है ।
अमृत की बूँदें बरसी थीं तब हमने मुँह फेर लिया,
आज ख़ुशी से ज़ह्र पी रहे और इसका एहसास भी है ।
इन्द्रधनुष के पुल से गुज़रकर उस बस्ती तक आए हैं,
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिन्दास भी है ।
कंक्रीट के इस जंगल में फूल खिले पर गन्ध नहीं,
स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है ।
ये दुखड़ा रो रहे थे आज पंडित जी शिवाले में
ये दुखड़ा रो रहे थे आज पंडित जी शिवाले में ।
कि कम्प्यूटर कथा बाँचेगा ढिबरी के उजाले में ।
विदेशी पूंजी मंत्री जी की अय्याशी में गलती है,
ज़ह्र कर्ज़े का घुल जाता है मुफ़्लिस के निवाले में ।
सदन की बढ़ गई गरिमा ‘छदामी लाल’ क्या आए,
इमरजेन्सी में बंदी थे ये चीनी के घोटाले में ।
टी०वी० से अख़बार तक ग़र सेक्स की बौछार हो
टी०वी० से अख़बार तक ग़र सेक्स की बौछार हो ।
फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो ।
बह गए कितने सिकन्दर वक़्त के सैलाब में,
अक़्ल इस कच्चे घड़े से कैसे दरिया पार हो ।
सभ्यता ने मौत से डर कर उठाए हैं क़दम,
ताज की कारीगरी या चीन की दीवार हो ।
मेरी ख़ुद्दारी ने अपना सर झुकाया दो जगह,
वो कोई मज़लूम[1] हो या साहिबे-किरदार[2] हो ।
एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो ।
जिस्म क्या है, रुह तक सब कुछ खुलासा देखिए
जिस्म क्या है, रुह तक सब कुछ खुलासा देखिए ।
आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिए ।
जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज,
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए ।
जल रहा है देश, यह बहला रही है क़ौम को,
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिए ।
मत्स्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार,
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिए ।
मुक्तिकामी चेतना, अभ्यर्थना इतिहास की
मुक्तिकामी चेतना, अभ्यर्थना इतिहास की ।
ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की ।
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत,
वो कहानी है महज़ प्रतिशोध की, संत्रास की ।
यक्ष-प्रश्नों में उलझकर रह गई बूढ़ी सदी,
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्या हमारी प्यास की ।
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया,
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की ।
याद रखिए यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार,
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की ।
अदम सुकून में जब कायनात होती है
‘अदम’ सुकून में जब कायनात होती है ।
कभी-कभार मेरी उससे बात होती है ।
कहीं हो ज़िक्र अक़ीदत[1] से सर झुका देना,
बड़ी अज़ीम[2] ये औरत की ज़ात होती है ।
उफ़ुक[3] पे खींच दे पर्दा, चराग़ जल जाए,
हम अगर सोच लें तो दिन में रात होती है ।
नवीन जंग छिड़ी है इधर विचारों में,
रोज़ इस मोर्चे पर शह व मात होती है ।
समझ के तन्हा न इस शख़्स को दावत देना,
‘अदम’ के साथ ग़मों की बरात होती है।
जो ‘डलहौजी’ न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
जो ‘डलहौजी’ न कर पाया वो ये हुक्काम[1] कर देंगे ।
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे ।
सुरा औ’ सुन्दरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर[2],
ये दिल्ली को रँगीलेशाह[3] का हम्माम[4] कर देंगे ।
ये वन्देमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर,
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे ।
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे,
ये अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे ।
- ऊपर जायें↑ शासक-प्रशासक
- ऊपर जायें↑ पथ-प्रदर्शक, नेता
- ऊपर जायें↑ नवाब वाजिद अली शाह
- ऊपर जायें↑ स्नानागार
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे
घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है
घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है ।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है ।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारिन-सी,
ये सुबहे-फ़रवरी बीमार पत्नी से भी पीली है ।
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में,
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है ।
सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर एहसास कैसे हो,
मुहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है ।
जुल्फ – अंगडाई – तबस्सुम
जुल्फ – अंगडाई – तबस्सुम – चाँद – आईना -गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब
डाल पर मजहब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए
डूबना आसान है आंखों के सागर में जनाब
चाँद है ज़ेरे-क़दम, सूरज खिलौना हो गया
चाँद है ज़ेरे-क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया
शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलोना हो गया
ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
जिंदगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया जिंद
यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया
अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं
इस अहद में प्यार का सिंबल तिकोना हो गया.
महेज़ तनख़्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाइ के
महेज़ तनख़्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाइ के।
हज़ारों रास्ते हैं सिन्हा साहब [1] की कमाई के ।
ये सूखे की निशानी उनके ड्राइंगरूम में देखो,
जो टी० वी० का नया सेट है रखा ऊपर तिपाई के ।
मिसेज़ सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं,
पिछली बाढ़ के तोहफ़े हैं, ये कंगन कलाई के।
ये ‘मैकाले’ के बेटे ख़ुद को जाने क्या समझते हैं,
कि इनके सामने हम लोग ‘थारू’ हैं तराई के ।
भारत माँ की एक तस्वीर मैंने यूँ बनाई है,
बँधी है एक बेबस गाय खूँटे में कसाई के ।
- ऊपर जायें↑ तत्कालीन ज़िलाधिकारी गोण्डा
भुखमरी, बेरोज़गारी, तस्करी के एहतिमाम
भुखमरी, बेरोज़गारी, तस्करी के एहतिमाम[1] ।
सन् सतासी नज़्र[2] कर दें मज़हबी दंगों के नाम ।
दोस्त ! मलियाना[3] में जाके देखिए,
दो क़दम ‘हिटलर’ से आगे है ये जम्हूरी निज़ाम[4] ।
है इधर फ़ाक़ाकशी से रात का कटना मुहाल,
रक्स करती है उधर स्कॉच की बोतल में शाम ।
बम उगाएँगे ‘अदम’ देहकान[5] गंदुम[6] के एवज़,
आप पहुँचा दें हुकूमत तक हमारा ये पयाम ।
- ऊपर जायें↑ देखरेख, निगरानी
- ऊपर जायें↑ भेंट, तोहफ़ा, अर्पित
- ऊपर जायें↑ मेरठ के पास एक जगह, जहाँ पी०ए०सी० ने मुस्लिमों का क़त्लेआम किया था
- ऊपर जायें↑ लोकतान्त्रिक व्यवस्था
- ऊपर जायें↑ किसान
- ऊपर जायें↑ गेहूँ
मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने –
“जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने”
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर “माल वो चोरी का तूने क्या किया”
“कैसी चोरी माल कैसा” उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर –
“मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो”
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
“कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं”
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े “इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा”
इक सिपाही ने कहा “साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें”
बोला थानेदार “मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है”
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
“कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल”
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।
पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को ।
घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर मेंकोठी के ज़ीने से
अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.
किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी
किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी
कल के बदनाम अंधेरों पे मेहरबां होगी
खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर
फिर मेरे गीत में मासूमियत कहाँ होगी
आप आयें तो कभी गाँव की चौपालों में
मैं रहूँ या न रहूँ भूख मेज़बां होगी
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धिखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में
काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है
भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है
अहले हिन्दुस्तान अब तलवार के साये में है
छा गई है जेहन की परतों पर मायूसी की धूप
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है
बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ
और कश्ती कागजी पतवार के साये में है
हम फ़कीरों की न पूछो मुतमईन वो भी नहीं
जो तुम्हारी गेसुए खमदार के साये में है
विकट बाढ़ की करुण कहानी
विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्यास लिखा है
बूढ़े बरगद के वल्कल पर सदियों का इतिहास लिखा है
क्रूर नियति ने इसकी किस्मत से कैसा खिलवाड़ किया है
मन के पृष्ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है
छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्वप्निल स्मृतियों में सीता का वनवास लिखा है
नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्वास लिखा है
लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तनहाई के मरुथल में मधुमास लिखा है
अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्य पर विरहदग्ध उच्छ्वास लिखा है
न महलों की बुलन्दी से , न लफ़्ज़ों के नगीने से
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
न इन में वो कशिश होगी , न बू होगी , न रआनाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी कतारों में
अदीबो ! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में
रहे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तजरबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में
कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में.
ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे
जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?
जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?
तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ?