श्रंगार-सोरठा
गई आगि उर लाय, आगि लेन आई जो तिय ।
लागी नाहिं, बुझाय, भभकि भभकि बरि-बरि उठै ।।1।।
तुरुक गुरुक भरिपूर, डूबि डूबि सुरगुरु उठै ।
चातक चातक दूरि, देह दहे बिन देह को ।।2।।
दीपक हिए छिपाय, नबल वधू घर ले चली ।
कर विहीन पछिताय, कुच लखि जिन सीसै धुनै ।।3।।
पलटि चली मुसुकाय दुति रहीम उपजात अति ।
बाती सी उसकाय मानों दीनी दीन की ।।4।।
यक नाही यक पी हिय रहीम होती रहै ।
काहु न भई सरीर, रीति न बेदन एक सी ।।5।।
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुँ जलज मधुकर लसै ।
कैधों शालिग्राम, रूपे के अरघा धरे ।।6।।
नगर-शोभा
आदि रूप की परम दुति, घट-घट रहा समाइ ।
लघु मति ते मो मन रसन, अस्तुति कही न जाइ ।।1।।
नैन तृप्ति कछु होतु है, निरखि जगत की भाँति ।
जाहि ताहि में पाइयै, आदि रूप की काँति ।।2।।
उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय ।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय ।।3।।
परजापति परमेश्वरी, गंगा रूप-समान ।
जाके अंग-तरंग में, करत नैन अस्नान ।।4।।
रूप-रंग-रति-राज में, खतरानी इतरान ।
मानों रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक मैं सान ।।5।।
पारस पाहन की मनो, धरै पूतरी अंग ।
क्यों न होई कंचल पहू, जो बिलसै तिहि संग ।।6।।
कबहुँ दिखावै जौहरिन, हँसि हँसि मानिक लाल ।
कबहूँ चख ते च्वै परै, टूटि मुकुत की माल ।।7।।
जद्यपि नैननि ओट है, बिरह चोट बिन घाइ ।
पिय उर पीरा ना करै, हीरा सी गड़ि जाइ ।।8।।
कैथिनी कथन न पारई, प्रेम-कथा मुख बैन ।
छाती ही पाती मनो, लिखै मैन की सैन ।।9।।
बरूनि-बार लेखनि करै, मसि काजरि भरि लेइ ।
प्रेमाखर लिखि नैन ते, पिय बाँचन को देह ।।10।।
चतुर चितेरिन चित हरै चख खंजन के भाइ ।
द्वै आधौ करि डारई, आधौ मुख दिखराइ ।।11।।
पलक न टारै बदन तें, पलक न मारै नित्र ।
नेकु न चित तें ऊतरै, ज्यों कागद में चित्र ।।12।।
सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाये पान ।
निसि दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान ।।13।।
पानी पीरी अति बनी, चंदन खौरे गात ।
परसत बीरी अधर की, पीरी कै ह्वै जात ।।1411
परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि ।
मानों साँचे ढारि कै, बिधिना गढ़ी सुनारि ।।15।।
रहसनि बहसनि मन हरै, घेरि घेरि तन लेहि ।
औरन को चित चोरि कै, आपुन चित्त न देहि ।।16।।
बनिआइन बनि आइ कै, बैठि रूप की हाट ।
पेम पेक तन हेरि कै, गरुए टारत बाट ।।17।।
गरब तराजू करत चख, भौंह मोरि मुसक्यात ।
डाँड़ी मारत बिरह की, चित चिन्ता घटि जात ।।18।।
रँग रेजिन के संग में, उठत अनंग तरंग ।
आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अंत के रंग ।।19।।
मारति नैन कुरंग तैं, मो मन मार मरोरि ।
आपुन अधर सुरंग तैं, कामिहिं काढ़ति बोरि ।।20।।
गति गरूर गजराज जिमि, गोरे बरन गँबारि ।
जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहारि ।।21।।
घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाइ ।
कूक कंठ तैं बाँधि कै, लेजू ज्यों लै जाइ ।।22।।
भाटा बरन सुकौंजरी, बेचै सोवा साग ।
निलजु भई खेलत सदा, गारी द दै फाग ।।23।।
हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात।
झूठे हू गारी सुनत, साँचेहू ललचात ।।24।।
बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ ।
वाके जेहरि के सबद, बिहरी जिय हर जाइ ।।25।।
और बनज ब्यौपार को, भाव बिचारै कौन ।
लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन ।।26।।
बर बाँके माटी भरे, कौंरी बैस कुम्हारि ।
द्वै उलटै सरवा मनौ, दीसत कुच उनहारि ।।27।।
निरखि प्रान घट ज्यों रहै, क्यों मुख आवै बाक ।
उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक ।।28।।
बिरह अगिन निसि दिन धवै, उठै चित्त चिनगारि ।
बिरही जियहिं जराइ कै, करत लुहारि लुहारि ।।29।।
राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि ।
बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि ।।30।।
कलवारी रस प्रेम कों, नैनन भरि भरि लेति ।
जोबन मद माती फिरै, छाती छुवन न देति ।।31।।
नैनन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देइ ।
मतवारे की मत हरै, जो चाहै सो लेइ ।।32।।
परम ऊजरी गूजरी, दह्यौ सीस पै लेइ ।
गोरस के मिस डोलही, सो रस नेकु न देइ ।।33।।
गाहक सों हँसि बिहँसि कै, करति बोल अरु कौल ।
पहिले आपुन मोल कहि, कहति दही को मोल ।।34।।
काछिनि कछू न जानई, नैन बीच हित चित्त ।
जोबन जल सींचति रहै, काम कियारी नित्त ।।35।।
कुच भाटा, गाजर अधर, मूरा से भुज भाइ ।
बैठी लौका बेचई, लेटी खीरा खाइ ।।36।।
हाथ लिये हत्या फिरै, जोबन गरब हुलास ।
धरै कसाइन रैन दिन बिरही रकत पियास ।।37।।
नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ ।
बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सो टेइ ।।38।।
हियरा भरै तबाखिनी, हाथ न लावन देत ।
सुरवा नेक चखाइकै, हड़ी झारि सब देत ।।39।।
अधर सुधर चख चीकनै, दूभर हैं सब गात ।
वाको परसो खात हू, बिरही नहिं न अघात ।।40।।
बेलन तिली सुबासि कै, तेलिन करै फुलैल ।
बिरही दृष्टि फिरौ करै, ज्यों तेली को बैल ।।41।।
कबहूँ मुख रूखौ किये, कहै जीय की बात ।
वाको करुआ बचन सुनि, मुख मीठो ह्वै जात ।।42।।
पाटम्बर पटइन पहिरि, सेंदुर भरे ललाट ।
बिरही नेकु न छाँड़ही, वा पटवा की हाट ।।43।।
रस रेसम बेंचत रहै, नैन सैन की सात ।
फूंदी पर को फोंदना, करै कोटि जिय घात ।।44।।
भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात ।
आवत बहु आदर करै, जात न पूछै बात ।।45।।
भटियारी उर मुँह करै, प्रेम-पथिक के ठौर ।
द्यौस दिखावै और की, रात दिखावै और ।।46।।
करै गुमान कमाँगरी, भौंह कमान चढ़ाइ ।
पिय कर गहि जब खैंचई, फिरि कमान सी जाइ ।।47।।
जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक ।
सूधी करत कमान ज्यों, बिरह-अगिन में सेंक ।।48।।
हँसि हँसि मारै नैन-सर, बारत जिय बहु पीर ।
बेझा ह्वै उर जात है, तीरगरिन कै तीर ।।49।।
प्रान सरीकन साल दै, हेरि फेरि कर लेत ।
दुख संकट पै काढि के, सुख सरेस में देत ।।50।।
छीपिन छापौ अधर को, सुरँग पीक भरि लेइ ।
हँसि हँसि काम कलोल में, पिय मुख ऊपर देइ ।।51।।
मानों मूरति मैन की, धरै रंग सुरतंग ।
नैन रंगीले होतु हैं, देखत वाको रंग ।।52।।
सकल अंग सिकलीगरिन, करत प्रेम औसेर ।
करै बदन दर्पन मनों, नैन मुसकिला फेरि ।।53।।
अंजनचख, चंदन बदन, सोभित सेंदुर मंग ।
अंगनि रंग सुरंग कै, काढ़ै अंग अनंग ।।54।।
करै न काहू की संका, सक्किन जोबन रूप ।
सदा सरम जल तें भरी, रहै चिबुक को कूप ।।55।।
सजल नैन वाके निरखि, चलत प्रेम रस फूटि ।
लोक लाज डर धाकते, जात मसक सी छूटि ।।56।।
सुरँग बसन तन गाँधिनी, देखत दृग न अघाय ।
कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय ।।57।।
कामेश्वर नैननि धरै, करत प्रेम की केलि ।
नैन माहि चोवा भरे, चिहुरन माहिं फुलेल ।।58।।
राज करत रजपूतनी देस रूप की दीप ।
कर घूँघट पट ओट कै, आवत पियहि समीप ।।59।।
सोभित मुख ऊपर धरै, सदा सुरत मैदान ।
छूटी लटैं बँदूकची, भोंहें रूप कमान ।।60।।
चतुर चपल कोमल बिमल, पग परसत सतराइ ।
रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ ।।61।।
सीस चूँदरी निरखि मन, परत प्रेम के जार ।
प्रान इजारो लेत है, वाको लाल इजार ।।62।।
जोगिन जोग न जानई, परै प्रेम रस माँहि ।
डोलत मुख ऊपर लिये, प्रेम जटा की छाँहि ।।63।।
मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगो विष बैन ।
मुदरा धारै अधर कै, मूँदि ध्यान सों नैन ।।64।।
भाटिन भटकी प्रेम की, हटकी रहै न गेह ।
जोबन पर लटकी फिरै, जोरत तरकि सनेह ।।65।।
मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख-लौन ।
आपुन जोबन रूप को, अस्तुति करै न कौन ।।66।।
लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान ।
गाइ गाइ कछु लेत है, बाँकी तिरछी तान ।।67।।
नैकु न सूधे मुख रहै, झुकि हँसि मुरि मुसक्याइ ।
उपपति की सुन जात है, सरबस लेइ रिझाइ ।।68।।
चेरी माती मैन की, नैन सैन के भाइ ।
संक भरी जंभुवाइ कै, भुज उठाइ अँगराइ।।69।।
रंग रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह ।
सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह ।।70।।
बाँस चढ़ी नट-नंदनी, मन बाँधत लै बाँस ।
नैन मैन की सैन तें, मटत कटाछन साँस ।।71।।
अलबेली उद्भुत कला, सुध बुध लै बरजार ।
चोरि चोरि मन लेत है, ठौर ठौर तन तोर ।।72।।
बोलनि पै पिय मन विमल, चितवनि चित्त समाय ।
निसि वासर हिंदू तुरक, कौतुक देखि लुभाय ।।73।।
लटकि लेइ कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल ।
सेत लाल छबि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल ।।74।।
कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग ।
भाना भामै भोरही, रहै घटा के संग ।।75।।
नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय ।
छवि तै चित्त छुड़ावही, नट के भाय दिखाय ।।76।।
हरि गुन आवज केसवा, हिंसा बाजत काम ।
प्रथम विभासै गाइके, करत जीत संग्राम ।।77।।
प्रेम अहेरी साजि कै, बाँध परयो रस तान ।
मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान ।।78।।
मिलत अंग सब अंगना, प्रथम माँगि मन लेइ ।
घेरि घेरि उर राख ही, फेरि फेरि उर देइ ।।79।।
बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारै देह ।
फिर तन-गेह न आवही, मन जु चैटुवा लेह ।।80।।
प्राँन-पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान।
सुरत अंग चित चोरई, काय पाँच रसवान ।।81।।
उपजावै रस में बिरस, बिरस माहिं रस नेम ।
जो कीजै बिपरीत रति, अतिहि बढ़ावत प्रेम ।।82।।
कहै आन की आन कछु, बिरह पीर तन ताप ।
औरे गाइ सुनावई, औरे कछू अलाप ।।83।।
जुँकिहारी जोबन लये, हाथ फिरै रस देत ।
आपुन मास चखाइ कै, रकत आन को लेत ।।84।।
बिरही के उर में पड़ै, स्याम अलक की नोक ।
बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक ।।85।।
विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन ।
करत कोप बहु भाँति ही, धाइ मैन की सैन ।।86।।
विरह विथा कोई कहै, समुझै कछू न ताहि ।
वाके जोबन रूप की, अकथ कथा कछु आहि ।।87।।
जाहि ताहि के उर गड़ै, कुंदिन बसन मलीन ।
निस दिन वाके जाल में, परत फँसत मन मीन ।।88।।
जा वाके अँग संग में, धरै प्रीत की आस ।
वाको लागै महमही, बसन बसेधी बास ।।89।।
सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मनन कलंक ।
सेत बसन कीने मनो, साबुन लाइ मतंग ।।90।।
विरह बिथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाइ ।
मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाइ ।।91।।
थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सींव ।
रूप नगर में देत है, नैन मंदिर को नींव ।।92।।
करत बदन सुख सदन पै, घूँघट नितरन छाँह ।
नैननि मूँदे पग धरै, भौंहन आरै माँह ।।93।।
कुन्दनसी कुन्दीगरिन, कामिनि कठिन कठोर ।
और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर ।।94।।
पगहि मौगरी सो रहै, पम बज्र बहु खाइ ।
रँग रँग अंग अनंग के, करै बनाइ बनाइ ।।95।।
धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुरति की भाँति ।
वाको राग न बूझही, कहा बजावै ताँति ।।96।।
काम पराक्रम जब करै, छुवत नरम हो जाइ ।
रोम रोम पिय के बदन, रूई सी लपटाइ ।।97।।
कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ ।
बिरही वाके भौन में, ताना तनत बजाइ ।।98।।
बिरह भार पहुँचे नहीं, तानी बहै न पेम ।
जोबन पानी मुख धरै, खैंचे पिय के नैन ।।99।।
जोबन युत पिय दबगरिन, कहत पीय के पास ।
मो मन और न भावई, छाँडि तिहारी बास ।।100।।
भरी कुपी कुच पीन की, कंचुक में न समाइ ।
नव सनेह असनेह भरि, नैन कुपा ढरि जाइ ।।101।।
घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि ।
घर घर वाके रूप को, रह्यौ नगारा बाजि ।।102।।
पहनै जो बिछुवा खरी, पित के संग अंगरात ।
रतिपति की नौबत मनो, बाजत आधी रात ।।103।।
मन दलमलै दलालिनी, रूप अंग के भाइ ।
नैन मटकि मुख की चटकि, गाहक रूप दिखाइ ।।104।।
लोक लाज कुलकानि तैं, नहीं सुनावति बोल ।
नैननि सैननि में करै, बिरही जन को मोल ।।105।।
निसि दिन रहै ठठेरिनी, साजे माजे गात ।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात ।।106।।
आभूषण बसतर पहिरि, चितवति पिय मुख ओर ।
मानो गढ़े नितंब कुच, गडुवा ढार कठोर ।।107।।
कागद से तन कागदिन, रहै प्रेम के पाइ ।
रीझी भीजी मैन जल, कागद सी सिथलाइ ।।108।।
मानों कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास ।
सुरत दूर चित खैंचई, आइ रहै उर पास ।।109।।
देखन के मिस मसिकरिन, पुनि भर मसि खिन देत ।
चख टौना कछु डारई, सूझै स्याम न सेत ।।110।।
रूप जोति मुख पै धरै, छिनक मलीन न होत ।
कच मानो काजर परै, मुख दीपक की जोति ।।111।।
बाजदारिनी बाज पिय, करै नहीं तन साज ।
बिरह पीर तन यों रहै, जर झकिनी जिमि बाज ।।112।।
नैन अहेरी साजि कै, चित पंछी गहि लेत ।
बिरही प्रान सचान को, अधर न चाखन देत ।।113।।
जिलेदारिनी अति जलद, बिरह अगिन कै तेज ।
नाक न मोरै सेज पर, अति हाजर महिमेज ।।114।।
औरन को घर सघन मन, चलै जु घूँघट माँह ।
वाके रंग सुरंग को, जिलेदार पर छाँह ।।115।।
सोभा अंग भँगेरिनी, सोभित भाल गुलाल ।
पता पीसि पानी करै, चखन दिखावै लाल ।।116।।
काहू अधर सुरंग धरि, प्रेम पियालो देत ।
काहू की गति मति सुरत, हरुवैई हरि लेत ।।117।।
बाजीगरिन बजार में, खेलत बाजी प्रेम ।
देखत वाको रस रसन, तजत नैन व्रत नेम ।।118।।
पीवत वाको प्रेम रस, जोई सो बस होइ ।
एक खरे घूमत रहै, एक परे मत खोइ ।।119।।
चीताबानी देखि कै, बिरही रहे लुभाय ।
गाड़ी को चीतो मनो, चलै न अपने पाय ।।120।।
अपनी बैसि गरूर तें, गिनै न काहू मित्त ।
लाँक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त ।।121।।
कठिहारी उर की कठिन, काठ पूतरी आहि ।
छिनक ज पिय सँग ते टरैं, बिरह फँदे नहिं ताहि ।।122।।
करै न काहू को कह्यौ, रहे कियै हिय साथ ।
बिरही को कोमल हियो, क्यों न होइ जिम काठ ।।123।।
घासिन थोरे दिनन की, बैठी जोबन त्यागि ।
थोरे ही बुझि जात है, घास जराई आग ।।124।।
तन पर काहू ना गिनै, अपने पिय के हेत ।
हरवर बेड़ो बैस को, थोरे ही को देत ।।125।।
रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग ।
ना जानै संजोग रस, ना जानै बैराग ।।126।।
अनमिल बतियाँ सब करैं, नाहीं मलिन सनेह ।
डफली बाजै बिरह की, निसि दिन वाके गेह ।।127।।
बिरही के उर में गड़ै गडिबारिनको नेह ।
शिव-बाहन सेवा करै, पावै सिद्धि सनेह ।।128।।
पैम पीर वाकी जनौ, कंटकहू नगड़ाइ ।
गाड़ी पर बैठै नहीं, नैननि सो गड़ि जाइ ।।129।।
बैठी महत महावतिन, धरै जु आपुन अंग ।
जोबन मद में गलि चढ़ी, फिरै जु पिय के संग ।।130।।
पीत कॉंछि कंचुक तनहि, बाला गहे कलाब ।
जाहि ताहि मारत फिरै, अपने पिय के ताब ।।131।।
सरवानी विपरीत रस, किय चाहै न डराइ ।
दुर न विरही को दुर्यौ, ऊँट न छाग समाय ।।132।।
जाहि ताहि कौ चित्त हरै, बाँधे प्रेम कटार ।
वित आवत गहि खैंचई, भरि कै गहै मुहार ।।133।।
नालबंदिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल ।
जोबन अंग तुरंग की, बाँधन देइ न नाल ।।134।।
चोली माँहि चुरावई, चिरवादारिनि चित्त ।
फेरत वाके गात पर, काम खरहरा नित्त ।।135।।
सारी निसि पिय संग रहै, प्रेम अंग आधीन।
मठी माहिं दिखावही, बिरही को कटि खीन ।।136।।
धोबिन लुबधी प्रेम की, नाघर रहै न घाट ।
देत फिरै घर घर बगर, लुगरा धरै लिलार ।।137।।
सुरत अंग मुख मोरि कै, राखै अधर मरोरि ।
चित्त गदहरा ना हरै, बिन देखे वा ओर ।।138।।
चोरति चित्त चमारिनी, रूप रंग के साज ।
लेत चलायें चाम के, दिन द्वै जोबन राज ।।139।।
जावै क्यों नहीं नेम सब, होइ लाज कुल हानि।
जो वाके संग पौढ़ई, प्रेम अधोरी तानि ।।140।।
हरी भरी गुन चूहरी, देखत जीव कलंक ।
वाके अधर कपोल को, चुवौ परै जिम रंग ।।141।।
परमलता सी लहलही, धरै पैम संयोग ।
कर गहि गरै लगाइयै हरै विरह को रोग ।।142।।
रूपरंग रति राज में, छ्तरानी इतरान ।
मानौ रची बिरंचि पचि,कुसुम कनक में सान।।143।।
बनियाइनि बनि आईकै, बैठि रूप की हाट।
पेम पक तन हेरिकै,गरुवे टारति बाट।।144।।
गरब तराजू करति चख,भौंह मोरि मुस्काति।
डांडी मार ति विरह की,चित चिंता घटि जाति।।145।
मदनाष्टक
शरद-निशि निशीथे चाँद की रोशनाई ।
सघन वन निकुंजे वंशी बजाई ।।
रति, पति, सुत, निद्रा, साइयाँ छोड़ भागी ।
मदन-शिरसि भूय: क्या बला आन लागी ।।1।।
कलित ललित माला या जवाहिर जड़ा था ।
चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था ।।
कटि-तट बिच मेला पीत सेला नवेला ।
अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला ।।2।।
दृग छकित छबीली छैलरा की छरी थी ।
मणि जटित रसीली माधुरी मूँदरी थी ।।
अमल कमल ऐसा खूब से खूब देखा ।
कहि सकत न जैसा श्याम का हस्त देखा ।।3।।
कठिन कुटिल कारी देख दिलदार जुलफे ।
अलि कलित बिहारी आपने जी की कुलफें ।।
सकल शशिकला को रोशनी-हीन लेखौं ।
अहह! ब्रजलला को किस तरह फेर देखौं ।।4।।
ज़रद बसन-वाला गुल चमन देखता था ।
झुक झुक मतवाला गावता रेखता था ।।
श्रुति युग चपला से कुण्डलें झूमते थे ।
नयन कर तमाशे मस्त ह्वै घूमते थे ।।5।।
तरल तरनि सी हैं तीर सी नोकदारैं ।
अमल कमल सी हैं दीर्घ हैं दिल बिदारैं ।।
मधुर मधुप हेरैं माल मस्ती न राखें ।
विलसति मन मेरे सुंदरी श्याम आँखें ।।6।।
भुजंग जुग किधौं हैं काम कमनैत सोहैं ।
नटवर! तव मोहैं बाँकुरी मान भौंहें ।।
सुनु सखि! मृदु बानी बेदुरुस्ती अकिल में ।
सरल सरल सानी कै गई सार दिल में ।।7।।
पकरि परम प्यारे साँवरे को मिलाओ ।
असल समृत प्याला क्यों न मुझको पिलाओ ।।
इति वदति पठानी मनमथांगी विरागी ।
मदन शिरसि भूय; क्या बला आन लागी ।।8।।
फलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था ।
चपल चखन वाला चान्दनी में खड़ा था ।।
कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला।
अली, बन अलबेला यार मेरा अकेला ।।9।।
संस्कृत श्लोक
(श्लोक)
आनीता नटवन्मया तब पुर; श्रीकृष्ण! या भूमिका ।
व्योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्त्वत्प्रीतयेऽद्यावधि ।।
प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भगवन् स्वप्रार्थित देहि मे ।
नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुरस्त्वेतादृशीं भूमिकाम् ।।1।।
(अर्थ)
हे श्रीकृष्ण! आपके प्रीत्यर्थ आज तक मैं नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चैरासी लाख रूप धारण करता रहा । हे परमेश्वर! यदि आप इसे (दृश्य) देख कर प्रसन्न हुए हों तो जो मैं माँगता हूँ उसे दीजिए और नहीं प्रसन्न हों तो ऐसी आज्ञा दीजिए कि मैं फिर कभी ऐसे स्वाँग धारण कर इस पृथ्वी पर न लाया जाऊँ।
(श्लोक)
कबहुँक खग मृग मीन कबहुँ मर्कटतनु धरि कै ।
कबहुँक सुर-नर-असुर-नाग-मय आकृति करि कै ।।
नटवत् लख चौरासि स्वॉंग धरि धरि मैं आयो ।
हे त्रिभुवन नाथ! रीझ को कछू न पायो ।।
जो हो प्रसन्न तो देहु अब मुकति दान माँगहु बिहँस ।
जो पै उदास तो कहहु इम मत धरु रे नर स्वाँग अस ।।
रिझवन हित श्रीकृष्ण, स्वाँग मैं बहु बिध लायो ।
पुर तुम्हार है अवनि अहंवह रूप दिखायो ।
गगन-बेत-ख-ख-व्योम-वेद बसु स्वाँग दिखाए ।
अंत रूप यह मनुष रीझ के हेतु बनाए ।।
जो रीझे तो दीजिए लजित रीझ जो चाय ।
नाराज भए तो हुकुम करु रे स्वाँग फेरि मन लाय ।।
(श्लोक)
रत्नाकरोऽस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय ।
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निजमनस्तदिदं गृहाण ।।2।।
(अर्थ)
रत्नाकर अर्थात् समुद्र आपका गृह है और लक्ष्मी जी आपकी गृहिणी हैं, तब हे जगदीश्वर! आप ही बतलाइए कि आप को क्या देने योग्य बच गया? राधिका जी ने आप का मन हरण कर लिया है, जिसे मैं आपको देता हूँ, उसे ग्रहण कीजिए।
रत्नाकर गृह, श्री प्रिया देय कहा जगदीश ।
राधा मन हरि लीन्ह तब कस न लेहु मम ईश ।।
(श्लोक)
अहल्या पाषाणःप्रकृतियशुरासीत् कपिचमू –
र्गुहो भूच्चांडालस्त्रितयमपि नीतं निजपदम् ।।
अहं चित्तेनाश्मा पशुरपि तवार्चादिकरणे ।
क्रियाभिश्चांडालो रघुवर नमामुद्धरसि किम् ।।3।।
(अर्थ)
अहल्या जी पत्थर थीं, बंदरों का समूह पशु था और निषाद चांडाल था पर तीनों को आप ने अपने पद में शरण दी । मेरा चित्त पत्थर है, आपके पूजन में पशु समान हूँ और कर्म से भी चांडाल सा हूँ इसलिए मेरा क्यों नहीं उद्धार करते।
(श्लोक)
यद्यात्रया व्यापकता हता ते भिदैकता वाक्परता च स्तुत्या ।
ध्यामेन बुद्धे; परत; परेशं जात्याऽजता क्षन्तुमिहार्हसि त्वं ।।4।।
(अर्थ)
यात्रा करके मैंने आपकी व्यापकता, भेद से एकता, स्तुति करके वाक्परता, ध्यान करके आपका बुद्धि से दूर होना और जाति निश्चित करके आपका अजातिपन नाश किया है, सो हे परमेश्वर! आप इन अपराधों को क्षमा करो।
( श्लोक)
दृष्टा तत्र विचित्रिता तरुलता, मैं था गया बाग में ।
काचितत्र कुरंगशावनयना, गुल तोड़ती थी खड़ी ।।
उन्मद्भ्रूधनुषा कटाक्षविशि;, घायल किया था मुझे ।
तत्सीदामि सदैव मोहजलधौ, हे दिल गुजारो शुकर ।।5।।
(अर्थ)
विचित्र वृक्षलता को देखने के लिए मैं बाग में गया था । वहाँ कोई मृग-शावक-नयनी खड़ी फूल तोड़ रही थी । भौं रूपी धनुष से कटाक्ष रूपी बाण चलाकर उसने मुझे घायल किया था। तब मैं सदा के लिए मोह रूपी समुद्र में पड़ गया। इससे हे हृदय, धन्यवाद दो।
(श्लोक)
एकस्मिन्दिवसावसानसमये, मैं था गया बाग में ।
काचितत्र कुरंगबालनयना, गुल तोड़ती थी खड़ी ।।
तां दृष्ट्वा नवयौवनांशशिमुखीं, मैं मोह में जा पड़ा ।
नो जीवामि त्वया विना श्रृणु प्रिये, तू यार कैसे मिले ।।6।।
(अर्थ)
एक दिन संध्या के समय मैं बाग में गया था। वहाँ कोई मृगछौने के नेत्रों के सामान आँख वाली खड़ी फूल तोड़ती थी । उस चन्द्रमुखी युवती को देखकर मैं मोह में जा पड़ा। हे प्रिये! सुनो, तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता (इसलिए बताओ) कि तुम कैसे मिलोगी ?
(श्लोक)
अच्युतच्चरणातरंगिणि शशिशेखर-मौलि-मालतीमाले ।
मम तनु-वितरण-समये हरता देया न में हरिता ।।7।।
(अर्थ)
विष्णु भगवान के चरणों से प्रवाहित होने वाली और महादेव जी के मस्तक पर मालती माला के समान शोभित होनेवाली हे गंगे, मुझे तारने के समय महादेव बनाना न कि विष्णु । अर्थात् तब मैं तुम्हें शिर पर धारण कर सकूँगा। (इसी अर्थ का दोहा सं. 2 भी है।)
(बहुभाषा-श्लोक)
भर्ता प्राची गतो मे, बहुरि न बगदे, शूँ करूँ रे हवे हूँ ।
माझी कर्माचि गोष्ठी, अब पुन शुणसि, गाँठ धेलो न ईठे ।।
म्हारी तीरा सुनोरा, खरच बहुत है, ईहरा टाबरा रो,
दिट्ठी टैंडी दिलोंदो, इश्क अल् फिदा, ओडियो बच्चनाडू ।।8।।
(अर्थ)
मेरे पति पूर्व की ओर जो गए सो फिर न लौटे, अब मैं क्या करूँ। मेरे कर्म की बात है। अब और सुनो कि गाँठ में एक अधेला भी नहीं है। मुझसे सुनो कि खर्च अधिक है और परिवार भी बहुत है। तेरे देखने को मन में ऐसा हो रहा है कि प्रेम पर निछावर हो जाऊँ । (विरहिणी नायिका इस प्रकार कातर हो रही थी कि किसी ने कहा कि) वह आया है।
बरवै नायिका-भेद / रहीम
(दोहा)
कवित कह्यो दोहा कह्यो, तुलै न छप्य्।।क छंद।
बिरच्या् यहै विचार कै, यह बरवैरस कंद।।1।।
(मंगलाचरण)
बंदौ देवि सरदवा, पद कर जोरि।
बरनत काव्यस बरैवा, लगै न खोरि।।2।।
(उत्त्मा)
लखि अपराध पियरवा, नहिं रिस कीन।
बिहँसत चनन चउकिया, बैठक दीन।।3।।
(मध्यनमा)
बिनुगुन पिय-उर हरवा, उपट्यो हेरि।
चुप ह्वै चित्र पुतरिया, रहि मुख फेरि।।4।।
(अधमा)
बेरिहि बेर गुमनवा, जनि करु नारि।
मानिक औ गजमुकुता, जौ लगि बारि।।5।।
(स्व कीया)
रहत नयन के कोरवा, चितवनि छाय।
चलत न पग-पैजनियॉं, मग अहटाय।।6।।
(मुग्धाम)
लहरत लहर लहरिया, लहर बहार।
मोतिन जरी किनरिया, बिथुरे बार।।7।।
लागे आन नवेलियहि, मनसिज बान।
उसकन लाग उरोजवा दृग तिरछान।।8।।
(अज्ञातयौवना)
कवन रोग दुहुँ छतिया, उपजे आय।
दुखि दुखि उठै करेजवा, लगि जनु जाय।।9।।
(ज्ञातयौवना)
औचक आइ जोबनवाँ, मोहि दुख दीन।
छुटिगो संग गोइअवॉं नहि भल कीन।।10।।
(नवोढ़ा)
पहिरति चूनि चुनरिया, भूषन भाव।
नैननि देत कजरवा, फूलनि चाव।।11।।
(विश्रब्धर नवोढ़ा)
जंघन जोरत गोरिया, करत कठोर।
छुअन न पावै पियवा, कहुँ कुच-कोर।।12।।
(मध्यतमा)
ढीलि आँख जल अँचवत, तरुनि सुभाय।
धरि खसिकाइ घइलना, मुरि मुसुकाय।।13।।
(प्रौढ़ रतिप्रीता)
भोरहि बोलि कोइलिया, बढ़वति ताप।
घरी एक घरि अलवा, रह चुपचाप।।14।।
(परकीया)
सुनि सुनि कान मुरलिया, रागन भेद।
गैल न छाँड़त गोरिया, गनत न खेद।।15।।
(ऊढ़ा)
निसु दिन सासु ननदिया, मुहि घर हेर।
सुनन न देत मुरलिया मधुरी टेर।।161।
(अनूढ़ा)
मोहि बर जोग कन्हैाया लागौं पाय।
तुहु कुल पूज देवतवा, होहु सहाय।।17।।
(भूत सुरति-संगोपना)
चूनत फूल गुलबवा डार कटील।
टुटिगा बंद अँगियवा, फटि पट नील।।18।।
आयेसि कवनेउ ओरवा, सुगना सार।
परिगा दाग अधरवा, चोंच चोटार।।19।।
(वर्तमान सुरति-गोपना)
मं पठयेउ जिहि मकवॉं, आयेस साध।
छुटिगा सीस को जुरवा, कसि के बाँध।।20।।
मुहि तुहि हरबर आवत, भा पथ खेद।
रहि रहि लेत उससवा, बहत प्रसेद।।21।।
(भविष्यत सुरति-गोपनान)
होइ कत आइ बदरिया, बरखहि पाथ।
जैहौं घन अमरैया, सुगना साथ।।22।।
जैहौं चुनन कुसुमियॉं, खेत बडिे दूर।
नौआ केर छोहरिया, मुहि सँग कूर।।23।।
(क्रिया-विदग्धान)
बाहिर लैके दियवा, बारन जाय।
सासु ननद ढिग पहुँचत, देत बुझाय।।24।।
(वचन-विदग्धाग)
तनिक सी नाक नथुनिया, मित हित नीक।
कहिति नाक पहिरावहु, चित दै सींक।।25।।
(लक्षिता)
आजु नैन के कजरा, औरे भाँत।
नागर नहे नवेलिया, सुदिने जात।।26।।
(अन्य -सुरति-दु:खिता)
बालम अस मन मिलियउँ, जस पय पानि।
हँसिनि भइल सवतिया, लइ बिलगानि।।27।।
(संभोग-दु:खिता)
मैं पठयउ जिहि कमवाँ, आयसि साध।
छुटिगो सीस को जुरवा, कसि के बाँधि।।28।।
मुहि तुहि हरबत आवत, भव पथ खेद।
रहि रहि लेत उससवा, बहत प्रसेद।।29।।
(प्रेम-गर्विता)
आपुहि देत जवकवा, गूँदत हार।
चुनि पहिराव चुनरिया, प्रानअधार।।30।।
अवरन पाय जवकवा, नाइन दीन।
मुहि पग आगर गोरिया, आनन कीन।।31।।
(रूप-गर्विता)
खीन मलिन बिखभैया, औगुन तीन।
मोहिं कहत विधुबदनी, पिय मतिहीन।।32।।
दातुल भयसि सुगरुवा, निरस पखान।
यह मधु भरल अधरवा, करसि गुमान।।33।।
(प्रथम अनुशयना, भावी-संकेतनष्टार)
धीरज धरु किन गोरिया करि अनुराग।
जात जहाँ पिय देसवा, घन बन बाग।। 34।।
जनि मरु रोय दुलहिया, कर मन ऊन।
सघन कुंज ससुररिया, औ घर सून।।35।।
(द्वितीय अनुशयना, संकेत-विघट्टना)
जमुना तीर तरुनिअहि लखि भो सूल।
झरिगो रूख बेइलिया, फुलत न फूल।।36।।
ग्रीषम दवत दवरिया, कुंज कुटीर।
तिमि तिमि तकत तरुनिअहिं, बाढ़ी पीर।।37।।
(तृतीय अनुशयना, रमणगमना)
मितवा करत बँसुरिया, सुमन सपात।
फिरि फिरि तकत तरुनिया, मन पछतात।।38।।
मित उत तें फिरि आयेउ, देखु न राम।
मैं न गई अमरैया, लहेउ न काम।।39।।
(मुदिता)
नेवते गइल ननदिया, मैके सासु।
दुलहिनि तोरि खबारिया,आवै आँसु।।40।।
जैहौं काल नेवतवा, भा दु:ख दून।
गॉंव करेसि रखवरिया, सब घर सून।।41।।
(कुलटा)
जस मद मातल हथिया, हुमकत जात।
चितवत जात तरुनिया, मन मुसकात।।42।।
चितवत ऊँच अटरिया, दहिने बाम।
लाखन लखत विछियवा, लखी सकाम।।43।।
(सामान्या गणिका)
लखि लखि धनिक नयकवा बनवत भेष।
रहि गइ हेरि अरसिया कजरा रेख।।44।।
(मुग्धाि प्रोषितपतिका)
कासो कहौ सँदेसवा, पिय परदेसु।
लागेहु चइत न फले तेहि बन टेसु।।45।।
(मध्यात प्रोषितपतिका)
का तुम जुगुल तिरियवा, झगरति आय।
पिय बिन मनहुँ अटरिया, मुहि न सुहाय।।46।।
(प्रौढ़ा प्रोषितपतिका)
तैं अब जासि बेइलिया, बरु जरि मूल।
बिनु पिय सूल करेजवा, लखि तुअ फूल।।47।।
या झर में घर घर में, मदन हिलोर।
पिय नहिं अपने कर में, करमै खोर।।48।।
(मुग्धाप खंडिता)
सखि सिख मान नवेलिया, कीन्हेोसि मान।
पिय बिन कोपभवनवा, ठानेसि ठान।।49।।
सीस नवायँ नवेलिया, निचवइ जोय।
छिति खबि, छोर छिगुरिया, सुसुकति रोय।।50।।
गिरि गइ पीय पगरिया, आलस पाइ।
पवढ़हु जाइ बरोठवा, सेज डसाइ।।51।।
पोछहु अधर कजरवा, जावक भाल।
उपजेउ पीतम छतिया, बिनु गुन माल।।52।।
(प्रौढ़ा खंडिता)
पिय आवत अँगनैया, उठि कै लीन।
साथे चतुर तिरियवा, बैठक दीन।।53।।
पवढ़हु पीय पलँगिया, मींजहुँ पाय।
रैनि जगे कर निंदिया, सब मिटि जाय।।54।।
(परकीया खंडिता)
जेहि लगि सजन सनेहिया, छुटि घर बार।
आपन हित परिवरवा, सोच परार।।55।।
(गणिका खंडिता)
मितवा ओठ कजरवा, जावक भाल।
लियेसि काढ़ि बइरिनिया, तकि मनिमाल।।56।।
(मुग्धाज कलहांतरिता)
आयेहु अबहिं गवनवा, जुरुते मान।
अब रस लागिहि गोरिअहि, मन पछतान।।57।।
(मग्धाि कलहांतरिता)
मैं मतिमंद तिरियवा, परिलिउँ भोर।
तेहि नहिं कंत मनउलेउँ, तेहि कछु खोर।।58।।
(प्रौढ़ा कलहांतरिता)
थकि गा करि मनुहरिया, फिरि गा पीय।
मैं उठि तुरति न लायेउँ, हिमकर हीय।।59।।
(परकीया कलहांतरिता)
जेहि लगि कीन बिरोधवा, ननद जिठानि।
रखिउँ न लाइ करेजवा, तेहि हित जानि।।60।।
(गणिका कलहांतरिता)
जिहि दीन्हेलउ बहु बिरिया, मुहि मनिमाल।
तिहि ते रूठेउँ सखिया, फिरि गे लाल।।61।।
(मुग्धाठ विप्रलब्धाा)
लखे न कंत सहेटवा, फिरि दुबराय।
धनिया कमलबदनिया, गइ कुम्हिलाय।।62।।
(मध्याब विप्रलब्धाइ)
देखि न केलि-भवनवा, नंदकुमार।
लै लै ऊँच उससवा, भइ बिकरार।।63।।
(प्रौढ़ा विप्रलब्धान)
देखि न कंत सहेटवा, भा दुख पूर।
भौ तन नैन कजरवा, होय गा झूर।।64।।
(परकीया विप्रलब्धा )
बैरिन भा अभिसरवा, अति दुख दानि।
प्रातउ मिलेउ न मितवा, भइ पछितानि।।65।।
(गणिका विप्रलब्धात)
करिकै सोरह सिंगरवा, अतर लगाइ।
मिलेउ न लाल सहेटवा, फिरि पछिताई।।66।।
(मुग्धाल उत्कं,ठिता)
भा जुग जाम जमिनिया, पिय नहिं जाय।
राखेउ कवन सवतिया, रहि बिलमाय।।67।।
(मध्या उत्कं,ठिता)
जोहत तीय अँगनवा, पिय की बाट।
बेचेउ चतुर तिरियवा, केहि के हाट।।68।।
(प्रौढ़ा उत्कंाठिता)
पिय पथ हेरत गोरिया, भा भिनसार।
चलहु न करिहि तिरियवा, तुअ इतबार।।69।।
(परकीया उत्कंिठिता)
उठि उठि जात खिरिकिया, जोहत बाट।
कतहुँ न आवत मितवा, सुनि सुनि खाट।।70।।
(गणिका उत्कंवठिता)
कठिन नींद भिनुसरवा, आलस पाइ।
धन दै मूरख मितवा, रहल लोभाइ।।71।।
(मुग्धा वासकसज्जार)
हरुए गवन नबेलिया, दीठि बचाइ।
पौढ़ी जाइ पलँगिया, सेज बिछाइ।।72।।
(मध्या वासकसज्जास)
सुभग बिछाई पलँगिया, अंग सिंगार।
चितवत चौंकि तरुनिया, दै दृ्ग द्वार।।73।।
(प्रौढ़ा वासकसज्जास)
हँसि हँसि हेरि अरसिया, सहज सिंगार।
उतरत चढ़त नवेलिया, तिय कै बार।।74।।
(परकीया वासकसज्जा,)
सोवत सब गुरू लोगवा, जानेउ बाल।
दीन्हेबसि खोलि खिरकिया, उठि कै हाल।।75।।
(सामान्याह वासकसज्जा,)
कीन्हेमसि सबै सिंगरवा, चातुर बाल।
ऐहै प्रानपिअरवा, लै मनिमाल।।76।।
(मुग्धाय स्वांधीनपतिका)
आपुहि देत जवकवा, गहि गहि पाय।
आपु देत मोहि पियवा, पान खवाय।।77।।
(मध्याो स्वांधीनपतिका)
प्रीतम करत पियरवा, कहल न जात।
रहत गढ़ावत सोनवा, इहै सिरात।।78।।
(प्रौढ़ा स्वााधीनपतिका)
मैं अरु मोर पियरवा, जस जल मीन।
बिछुरत तजत परनवा, रहत अधीन।।79।।
(परकीया स्वााधीनपतिका)
भो जुग नैन चकोरवा, पिय मुख चंद।
जानत है तिय अपुनै, मोहि सुखकंद।।80।।
(सामान्याअ स्वािधीनपतिका)
लै हीरन के हरवा, मानिकमाल।
मोहि रहत पहिरावत, बस ह्वै लाल।।81।।
(मुग्धाह अभिसारिका)
चलीं लिवाइ नवेलिअहि, सखि सब संग।
जस हुलसत गा गोदवा, मत्तस मतंग।।82।।
(मध्याग अभिसारिका)
पहिरे लाल अछुअवा, तिय-गज पाय।
चढ़े नेह-हथिअवहा, हुलसत जाय।।83।।
(प्रौढ़ा अभिसारिका)
चली रैनि अँधिअरिया, साहस गाढि।
पायन केर कँगनिया, डारेसि काढि।।84।।
(परकीया क(ष्णा,भिसारिका)
नील मनिन के हरवा, नील सिंगार।
किए रैनि अँधिअरिया, धनि अभिसार।।85।।
(शुक्लाँभिसारिका)
सेत कुसुम कै हरवा भूषन सेत।
चली रैनि उँजिअरिया, पिय के हेत।।86।।
(दिवाभिसारिका)
पहिरि बसन जरतरिया, पिय के होत।
चली जेठ दुपहरिया, मिलि रवि जोत।।87।।
(गणिका अभिसारिका)
धन हित कीन्हि सिंगरवा, चातुर बाल।
चली संग लै चेरिया, जहवाँ लाल।।88।।
(मुग्धा प्रवत्य्व त्पतिका)
परिगा कानन सखिया पिय कै गौन।
बैठी कनक पलँगिया, ह्वै कै मौन।।89।।
(मध्याप प्रवत्य्व त्पतिका)
सुठि सुकुमार तरुयिका, सुनि पिय-गौन।
लाजनि पौढि ओबरिया, ह्वै कै मौन।।90।।
(प्रौढ़ा प्रवत्य्बरित्पतिका)
बन धन फूलहि टेसुआ, बगिअनि बेलि।
चलेउ बिदेस पियरवा फगुआ खेलि।।91।।
(परकीया प्रवत्य्ग त्पतिका)
मितवा चलेउ बिदेसवा मन अनुरागि।
पिय की सुरत गगरिया, रहि मग लागि।।92।।
(गणिका प्रवत्य् म त्पतिका)
पीतम इक सुमिरिनिया, मुहि देइ जाहु।
जेहि जप तोर बिरहवा, करब निबाहु।।93।।
(गुग्धार आगतपतिका)
बहुत दिवस पर पियवा, आयेउ आज।
पुलकित नवल दुलहिवा, कर गृह-काज।।94।।
(मध्याल आगतपतिका)
पियवा आय दुअरवा, उठि किन देख।
दुरलभ पाय बिदेसिया,मुद अवरेख।।95।।
(प्रौढ़ा आगतपतिका)
आवत सुनत तिरियवा, उठि हरषाइ।
तलफत मनहुँ मछरिया, जनु जल पाइ।।96।।
(परकीया आगतपतिका)
पूछन चली खबरिया, मितवा तीर।
हरखित अतिहि तिरियवा पहिरत चीर।।97।।
(गणिका आगतपतिका)
तौ लगि मिटिहि न मितवा, तन की पीर।
जौ लगि पहिर न हरवा, जटित सुहीर।।98।।
(नायक)
सुंदर चतुर धनिकवा, जाति के ऊँच।
केलि-कला परबिनवा, सील समूच।।99।।
(नायक भेद)
पति, उपपति, वैसिकवा, त्रिबिध बखान।
(पति लक्षण)
बिधि सो ब्याणह्यो गुरु जन पति सो जानि।।100।।
(पति)
लैकै सुघर खुरुपिया, पिय के साथ।
छइवै एक छतरिया, बरखत पाथ।।101।।
(अनुकूल)
करत न हिय अपरधवा, सपनेहुँ पीय।
मान करन की बेरिया, रहि गइ हीय।।102।।
(दक्षिण)
सौतिन करहि निहोरवा, हम कहँ देहु।
चुन चु चंपक चुरिया, उच से लेहु।।103।।
(शठ)
छूटेउ लाज डगरिया, औ कुल कानि।
करत जात अपरधवा, परि गइ बानि।।104।।
(धृष्टप)
जहवाँ जात रइनियाँ तहवाँ जाहु।
जोरि नयन निरलजवा, कत मुसुकाहु।।105।।
(उपपति)
झाँकि झरोखन गोरिया, अँखियन जोर।
फिरि चितवन चित मितवा, करत निहोर।।106।।
(वचन-चतुर)
सघन कुंज अमरैया, सीतल छाँह।
झगरत आय कोइलिया, पुनि उड़ि जाह।।107।।
(क्रिया-चतुर)
खेलत जानेसि टोलवा, नंदकिसोर।
हुइ वृषभानु कुँअरिया, होगा चोर।।108।।
(वैशिक)
जनु अति नील अलकिया बनसी लाय।
भो मन बारबधुअवा, तीय बझाय।।109।।
(प्रोषित नायक)
करबौं ऊँच अटरिया, तिय सँग केलि।
कबधौं, पहिरि गजरवा, हार चमेलि।।110।।
(मानी)
अब भरि जनम सहेलिया, तकब न ओहि।
ऐंठलि गइ अभिमनिया, तजि कै मोहि।।111।।
(स्वप्न,दर्शन)
पीतम मिलेउ सपनवाँ भइ सुख-खानि।
आनि जगाएसि चेरिया, भइ दुखदानि।।112।।
(चित्र दर्शन)
पिय मूरति चितसरिया, चितवन बाल।
सुमिरत अवधि बसरवा, जपि जपि माल।।113।।
(श्रवण)
आयेउ मीत बिदेसिया, सुन सखि तोर।
उठि किन करसि सिंगरवा, सुनि सिख मोर।।114।।
(साक्षात दर्शन)
बिरहिनि अवर बिदेसिया, भै इक ठोर।
पिय-मुख तकत तिरियवा, चंद चकोर।।115।।
(मंडन)
सखियन कीन्ह सिंगरवा रचि बहु भाँति।
हेरति नैन अरसिया, मुरि मुसुकाति।।116।।
(शिक्षा)
छाकहु बैठ दुअरिया मीजहु पाय।
पिय तन पेखि गरमिया, बिजन डोलाय।।117।।
(उपालंभ)
चुप होइ रहेउ सँदेसवा, सुनि मुसुकाय।
पिय निज कर बिछवनवा, दीन्हम उठाय।।118।।
(परिहास)
बिहँसति भौहँ चढ़ाये, धुनष मनीय।
लावत उर अबलनिया, उठि उठि पीय।।119।।
1.
भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।
घरी एक भरि अलिया रहु चुपचाप
बाहर लैकै दियवा बारन जाइ।
सासु ननद घर पहुँचत देति बुझाइ
पिय आवत अंगनैया उठिकै लीन।
बिहँसत चतुर तिरियवा बैठक दीन
लै कै सुघर खुरपिया पिय के साथ।
छइबै एक छतरिया बरसत पाथ
पीतम इक सुमरिनियाँ मोहिं देइ जाहु।
जेहि जपि तोर बिरहवा करब निबाहु
बरवै नायिका-भेद
(दोहा)
कवित कह्यो दोहा कह्यो, तुलै न छप्य्।।क छंद।
बिरच्या् यहै विचार कै, यह बरवैरस कंद।।1।।
(मंगलाचरण)
बंदौ देवि सरदवा, पद कर जोरि।
बरनत काव्यस बरैवा, लगै न खोरि।।2।।
(उत्त्मा)
लखि अपराध पियरवा, नहिं रिस कीन।
बिहँसत चनन चउकिया, बैठक दीन।।3।।
(मध्यनमा)
बिनुगुन पिय-उर हरवा, उपट्यो हेरि।
चुप ह्वै चित्र पुतरिया, रहि मुख फेरि।।4।।
(अधमा)
बेरिहि बेर गुमनवा, जनि करु नारि।
मानिक औ गजमुकुता, जौ लगि बारि।।5।।
(स्व कीया)
रहत नयन के कोरवा, चितवनि छाय।
चलत न पग-पैजनियॉं, मग अहटाय।।6।।
(मुग्धाम)
लहरत लहर लहरिया, लहर बहार।
मोतिन जरी किनरिया, बिथुरे बार।।7।।
लागे आन नवेलियहि, मनसिज बान।
उसकन लाग उरोजवा दृग तिरछान।।8।।
(अज्ञातयौवना)
कवन रोग दुहुँ छतिया, उपजे आय।
दुखि दुखि उठै करेजवा, लगि जनु जाय।।9।।
(ज्ञातयौवना)
औचक आइ जोबनवाँ, मोहि दुख दीन।
छुटिगो संग गोइअवॉं नहि भल कीन।।10।।
(नवोढ़ा)
पहिरति चूनि चुनरिया, भूषन भाव।
नैननि देत कजरवा, फूलनि चाव।।11।।
(विश्रब्धर नवोढ़ा)
जंघन जोरत गोरिया, करत कठोर।
छुअन न पावै पियवा, कहुँ कुच-कोर।।12।।
(मध्यतमा)
ढीलि आँख जल अँचवत, तरुनि सुभाय।
धरि खसिकाइ घइलना, मुरि मुसुकाय।।13।।
(प्रौढ़ रतिप्रीता)
भोरहि बोलि कोइलिया, बढ़वति ताप।
घरी एक घरि अलवा, रह चुपचाप।।14।।
(परकीया)
सुनि सुनि कान मुरलिया, रागन भेद।
गैल न छाँड़त गोरिया, गनत न खेद।।15।।
(ऊढ़ा)
निसु दिन सासु ननदिया, मुहि घर हेर।
सुनन न देत मुरलिया मधुरी टेर।।161।
(अनूढ़ा)
मोहि बर जोग कन्हैाया लागौं पाय।
तुहु कुल पूज देवतवा, होहु सहाय।।17।।
(भूत सुरति-संगोपना)
चूनत फूल गुलबवा डार कटील।
टुटिगा बंद अँगियवा, फटि पट नील।।18।।
आयेसि कवनेउ ओरवा, सुगना सार।
परिगा दाग अधरवा, चोंच चोटार।।19।।
(वर्तमान सुरति-गोपना)
मं पठयेउ जिहि मकवॉं, आयेस साध।
छुटिगा सीस को जुरवा, कसि के बाँध।।20।।
मुहि तुहि हरबर आवत, भा पथ खेद।
रहि रहि लेत उससवा, बहत प्रसेद।।21।।
(भविष्यत सुरति-गोपनान)
होइ कत आइ बदरिया, बरखहि पाथ।
जैहौं घन अमरैया, सुगना साथ।।22।।
जैहौं चुनन कुसुमियॉं, खेत बडिे दूर।
नौआ केर छोहरिया, मुहि सँग कूर।।23।।
(क्रिया-विदग्धान)
बाहिर लैके दियवा, बारन जाय।
सासु ननद ढिग पहुँचत, देत बुझाय।।24।।
(वचन-विदग्धाग)
तनिक सी नाक नथुनिया, मित हित नीक।
कहिति नाक पहिरावहु, चित दै सींक।।25।।
(लक्षिता)
आजु नैन के कजरा, औरे भाँत।
नागर नहे नवेलिया, सुदिने जात।।26।।
(अन्य -सुरति-दु:खिता)
बालम अस मन मिलियउँ, जस पय पानि।
हँसिनि भइल सवतिया, लइ बिलगानि।।27।।
(संभोग-दु:खिता)
मैं पठयउ जिहि कमवाँ, आयसि साध।
छुटिगो सीस को जुरवा, कसि के बाँधि।।28।।
मुहि तुहि हरबत आवत, भव पथ खेद।
रहि रहि लेत उससवा, बहत प्रसेद।।29।।
(प्रेम-गर्विता)
आपुहि देत जवकवा, गूँदत हार।
चुनि पहिराव चुनरिया, प्रानअधार।।30।।
अवरन पाय जवकवा, नाइन दीन।
मुहि पग आगर गोरिया, आनन कीन।।31।।
(रूप-गर्विता)
खीन मलिन बिखभैया, औगुन तीन।
मोहिं कहत विधुबदनी, पिय मतिहीन।।32।।
दातुल भयसि सुगरुवा, निरस पखान।
यह मधु भरल अधरवा, करसि गुमान।।33।।
(प्रथम अनुशयना, भावी-संकेतनष्टार)
धीरज धरु किन गोरिया करि अनुराग।
जात जहाँ पिय देसवा, घन बन बाग।। 34।।
जनि मरु रोय दुलहिया, कर मन ऊन।
सघन कुंज ससुररिया, औ घर सून।।35।।
(द्वितीय अनुशयना, संकेत-विघट्टना)
जमुना तीर तरुनिअहि लखि भो सूल।
झरिगो रूख बेइलिया, फुलत न फूल।।36।।
ग्रीषम दवत दवरिया, कुंज कुटीर।
तिमि तिमि तकत तरुनिअहिं, बाढ़ी पीर।।37।।
(तृतीय अनुशयना, रमणगमना)
मितवा करत बँसुरिया, सुमन सपात।
फिरि फिरि तकत तरुनिया, मन पछतात।।38।।
मित उत तें फिरि आयेउ, देखु न राम।
मैं न गई अमरैया, लहेउ न काम।।39।।
(मुदिता)
नेवते गइल ननदिया, मैके सासु।
दुलहिनि तोरि खबारिया,आवै आँसु।।40।।
जैहौं काल नेवतवा, भा दु:ख दून।
गॉंव करेसि रखवरिया, सब घर सून।।41।।
(कुलटा)
जस मद मातल हथिया, हुमकत जात।
चितवत जात तरुनिया, मन मुसकात।।42।।
चितवत ऊँच अटरिया, दहिने बाम।
लाखन लखत विछियवा, लखी सकाम।।43।।
(सामान्या गणिका)
लखि लखि धनिक नयकवा बनवत भेष।
रहि गइ हेरि अरसिया कजरा रेख।।44।।
(मुग्धाि प्रोषितपतिका)
कासो कहौ सँदेसवा, पिय परदेसु।
लागेहु चइत न फले तेहि बन टेसु।।45।।
(मध्यात प्रोषितपतिका)
का तुम जुगुल तिरियवा, झगरति आय।
पिय बिन मनहुँ अटरिया, मुहि न सुहाय।।46।।
(प्रौढ़ा प्रोषितपतिका)
तैं अब जासि बेइलिया, बरु जरि मूल।
बिनु पिय सूल करेजवा, लखि तुअ फूल।।47।।
या झर में घर घर में, मदन हिलोर।
पिय नहिं अपने कर में, करमै खोर।।48।।
(मुग्धाप खंडिता)
सखि सिख मान नवेलिया, कीन्हेोसि मान।
पिय बिन कोपभवनवा, ठानेसि ठान।।49।।
सीस नवायँ नवेलिया, निचवइ जोय।
छिति खबि, छोर छिगुरिया, सुसुकति रोय।।50।।
गिरि गइ पीय पगरिया, आलस पाइ।
पवढ़हु जाइ बरोठवा, सेज डसाइ।।51।।
पोछहु अधर कजरवा, जावक भाल।
उपजेउ पीतम छतिया, बिनु गुन माल।।52।।
(प्रौढ़ा खंडिता)
पिय आवत अँगनैया, उठि कै लीन।
साथे चतुर तिरियवा, बैठक दीन।।53।।
पवढ़हु पीय पलँगिया, मींजहुँ पाय।
रैनि जगे कर निंदिया, सब मिटि जाय।।54।।
(परकीया खंडिता)
जेहि लगि सजन सनेहिया, छुटि घर बार।
आपन हित परिवरवा, सोच परार।।55।।
(गणिका खंडिता)
मितवा ओठ कजरवा, जावक भाल।
लियेसि काढ़ि बइरिनिया, तकि मनिमाल।।56।।
(मुग्धाज कलहांतरिता)
आयेहु अबहिं गवनवा, जुरुते मान।
अब रस लागिहि गोरिअहि, मन पछतान।।57।।
(मग्धाि कलहांतरिता)
मैं मतिमंद तिरियवा, परिलिउँ भोर।
तेहि नहिं कंत मनउलेउँ, तेहि कछु खोर।।58।।
(प्रौढ़ा कलहांतरिता)
थकि गा करि मनुहरिया, फिरि गा पीय।
मैं उठि तुरति न लायेउँ, हिमकर हीय।।59।।
(परकीया कलहांतरिता)
जेहि लगि कीन बिरोधवा, ननद जिठानि।
रखिउँ न लाइ करेजवा, तेहि हित जानि।।60।।
(गणिका कलहांतरिता)
जिहि दीन्हेलउ बहु बिरिया, मुहि मनिमाल।
तिहि ते रूठेउँ सखिया, फिरि गे लाल।।61।।
(मुग्धाठ विप्रलब्धाा)
लखे न कंत सहेटवा, फिरि दुबराय।
धनिया कमलबदनिया, गइ कुम्हिलाय।।62।।
(मध्याब विप्रलब्धाइ)
देखि न केलि-भवनवा, नंदकुमार।
लै लै ऊँच उससवा, भइ बिकरार।।63।।
(प्रौढ़ा विप्रलब्धान)
देखि न कंत सहेटवा, भा दुख पूर।
भौ तन नैन कजरवा, होय गा झूर।।64।।
(परकीया विप्रलब्धा )
बैरिन भा अभिसरवा, अति दुख दानि।
प्रातउ मिलेउ न मितवा, भइ पछितानि।।65।।
(गणिका विप्रलब्धात)
करिकै सोरह सिंगरवा, अतर लगाइ।
मिलेउ न लाल सहेटवा, फिरि पछिताई।।66।।
(मुग्धाल उत्कं,ठिता)
भा जुग जाम जमिनिया, पिय नहिं जाय।
राखेउ कवन सवतिया, रहि बिलमाय।।67।।
(मध्या उत्कं,ठिता)
जोहत तीय अँगनवा, पिय की बाट।
बेचेउ चतुर तिरियवा, केहि के हाट।।68।।
(प्रौढ़ा उत्कंाठिता)
पिय पथ हेरत गोरिया, भा भिनसार।
चलहु न करिहि तिरियवा, तुअ इतबार।।69।।
(परकीया उत्कंिठिता)
उठि उठि जात खिरिकिया, जोहत बाट।
कतहुँ न आवत मितवा, सुनि सुनि खाट।।70।।
(गणिका उत्कंवठिता)
कठिन नींद भिनुसरवा, आलस पाइ।
धन दै मूरख मितवा, रहल लोभाइ।।71।।
(मुग्धा वासकसज्जार)
हरुए गवन नबेलिया, दीठि बचाइ।
पौढ़ी जाइ पलँगिया, सेज बिछाइ।।72।।
(मध्या वासकसज्जास)
सुभग बिछाई पलँगिया, अंग सिंगार।
चितवत चौंकि तरुनिया, दै दृ्ग द्वार।।73।।
(प्रौढ़ा वासकसज्जास)
हँसि हँसि हेरि अरसिया, सहज सिंगार।
उतरत चढ़त नवेलिया, तिय कै बार।।74।।
(परकीया वासकसज्जा,)
सोवत सब गुरू लोगवा, जानेउ बाल।
दीन्हेबसि खोलि खिरकिया, उठि कै हाल।।75।।
(सामान्याह वासकसज्जा,)
कीन्हेमसि सबै सिंगरवा, चातुर बाल।
ऐहै प्रानपिअरवा, लै मनिमाल।।76।।
(मुग्धाय स्वांधीनपतिका)
आपुहि देत जवकवा, गहि गहि पाय।
आपु देत मोहि पियवा, पान खवाय।।77।।
(मध्याो स्वांधीनपतिका)
प्रीतम करत पियरवा, कहल न जात।
रहत गढ़ावत सोनवा, इहै सिरात।।78।।
(प्रौढ़ा स्वााधीनपतिका)
मैं अरु मोर पियरवा, जस जल मीन।
बिछुरत तजत परनवा, रहत अधीन।।79।।
(परकीया स्वााधीनपतिका)
भो जुग नैन चकोरवा, पिय मुख चंद।
जानत है तिय अपुनै, मोहि सुखकंद।।80।।
(सामान्याअ स्वािधीनपतिका)
लै हीरन के हरवा, मानिकमाल।
मोहि रहत पहिरावत, बस ह्वै लाल।।81।।
(मुग्धाह अभिसारिका)
चलीं लिवाइ नवेलिअहि, सखि सब संग।
जस हुलसत गा गोदवा, मत्तस मतंग।।82।।
(मध्याग अभिसारिका)
पहिरे लाल अछुअवा, तिय-गज पाय।
चढ़े नेह-हथिअवहा, हुलसत जाय।।83।।
(प्रौढ़ा अभिसारिका)
चली रैनि अँधिअरिया, साहस गाढि।
पायन केर कँगनिया, डारेसि काढि।।84।।
(परकीया क(ष्णा,भिसारिका)
नील मनिन के हरवा, नील सिंगार।
किए रैनि अँधिअरिया, धनि अभिसार।।85।।
(शुक्लाँभिसारिका)
सेत कुसुम कै हरवा भूषन सेत।
चली रैनि उँजिअरिया, पिय के हेत।।86।।
(दिवाभिसारिका)
पहिरि बसन जरतरिया, पिय के होत।
चली जेठ दुपहरिया, मिलि रवि जोत।।87।।
(गणिका अभिसारिका)
धन हित कीन्हि सिंगरवा, चातुर बाल।
चली संग लै चेरिया, जहवाँ लाल।।88।।
(मुग्धा प्रवत्य्व त्पतिका)
परिगा कानन सखिया पिय कै गौन।
बैठी कनक पलँगिया, ह्वै कै मौन।।89।।
(मध्याप प्रवत्य्व त्पतिका)
सुठि सुकुमार तरुयिका, सुनि पिय-गौन।
लाजनि पौढि ओबरिया, ह्वै कै मौन।।90।।
(प्रौढ़ा प्रवत्य्बरित्पतिका)
बन धन फूलहि टेसुआ, बगिअनि बेलि।
चलेउ बिदेस पियरवा फगुआ खेलि।।91।।
(परकीया प्रवत्य्ग त्पतिका)
मितवा चलेउ बिदेसवा मन अनुरागि।
पिय की सुरत गगरिया, रहि मग लागि।।92।।
(गणिका प्रवत्य् म त्पतिका)
पीतम इक सुमिरिनिया, मुहि देइ जाहु।
जेहि जप तोर बिरहवा, करब निबाहु।।93।।
(गुग्धार आगतपतिका)
बहुत दिवस पर पियवा, आयेउ आज।
पुलकित नवल दुलहिवा, कर गृह-काज।।94।।
(मध्याल आगतपतिका)
पियवा आय दुअरवा, उठि किन देख।
दुरलभ पाय बिदेसिया,मुद अवरेख।।95।।
(प्रौढ़ा आगतपतिका)
आवत सुनत तिरियवा, उठि हरषाइ।
तलफत मनहुँ मछरिया, जनु जल पाइ।।96।।
(परकीया आगतपतिका)
पूछन चली खबरिया, मितवा तीर।
हरखित अतिहि तिरियवा पहिरत चीर।।97।।
(गणिका आगतपतिका)
तौ लगि मिटिहि न मितवा, तन की पीर।
जौ लगि पहिर न हरवा, जटित सुहीर।।98।।
(नायक)
सुंदर चतुर धनिकवा, जाति के ऊँच।
केलि-कला परबिनवा, सील समूच।।99।।
(नायक भेद)
पति, उपपति, वैसिकवा, त्रिबिध बखान।
(पति लक्षण)
बिधि सो ब्याणह्यो गुरु जन पति सो जानि।।100।।
(पति)
लैकै सुघर खुरुपिया, पिय के साथ।
छइवै एक छतरिया, बरखत पाथ।।101।।
(अनुकूल)
करत न हिय अपरधवा, सपनेहुँ पीय।
मान करन की बेरिया, रहि गइ हीय।।102।।
(दक्षिण)
सौतिन करहि निहोरवा, हम कहँ देहु।
चुन चु चंपक चुरिया, उच से लेहु।।103।।
(शठ)
छूटेउ लाज डगरिया, औ कुल कानि।
करत जात अपरधवा, परि गइ बानि।।104।।
(धृष्टप)
जहवाँ जात रइनियाँ तहवाँ जाहु।
जोरि नयन निरलजवा, कत मुसुकाहु।।105।।
(उपपति)
झाँकि झरोखन गोरिया, अँखियन जोर।
फिरि चितवन चित मितवा, करत निहोर।।106।।
(वचन-चतुर)
सघन कुंज अमरैया, सीतल छाँह।
झगरत आय कोइलिया, पुनि उड़ि जाह।।107।।
(क्रिया-चतुर)
खेलत जानेसि टोलवा, नंदकिसोर।
हुइ वृषभानु कुँअरिया, होगा चोर।।108।।
(वैशिक)
जनु अति नील अलकिया बनसी लाय।
भो मन बारबधुअवा, तीय बझाय।।109।।
(प्रोषित नायक)
करबौं ऊँच अटरिया, तिय सँग केलि।
कबधौं, पहिरि गजरवा, हार चमेलि।।110।।
(मानी)
अब भरि जनम सहेलिया, तकब न ओहि।
ऐंठलि गइ अभिमनिया, तजि कै मोहि।।111।।
(स्वप्न,दर्शन)
पीतम मिलेउ सपनवाँ भइ सुख-खानि।
आनि जगाएसि चेरिया, भइ दुखदानि।।112।।
(चित्र दर्शन)
पिय मूरति चितसरिया, चितवन बाल।
सुमिरत अवधि बसरवा, जपि जपि माल।।113।।
(श्रवण)
आयेउ मीत बिदेसिया, सुन सखि तोर।
उठि किन करसि सिंगरवा, सुनि सिख मोर।।114।।
(साक्षात दर्शन)
बिरहिनि अवर बिदेसिया, भै इक ठोर।
पिय-मुख तकत तिरियवा, चंद चकोर।।115।।
(मंडन)
सखियन कीन्ह सिंगरवा रचि बहु भाँति।
हेरति नैन अरसिया, मुरि मुसुकाति।।116।।
(शिक्षा)
छाकहु बैठ दुअरिया मीजहु पाय।
पिय तन पेखि गरमिया, बिजन डोलाय।।117।।
(उपालंभ)
चुप होइ रहेउ सँदेसवा, सुनि मुसुकाय।
पिय निज कर बिछवनवा, दीन्हम उठाय।।118।।
(परिहास)
बिहँसति भौहँ चढ़ाये, धुनष मनीय।
लावत उर अबलनिया, उठि उठि पीय।।119।।
1.
भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।
घरी एक भरि अलिया रहु चुपचाप
बाहर लैकै दियवा बारन जाइ।
सासु ननद घर पहुँचत देति बुझाइ
पिय आवत अंगनैया उठिकै लीन।
बिहँसत चतुर तिरियवा बैठक दीन
लै कै सुघर खुरपिया पिय के साथ।
छइबै एक छतरिया बरसत पाथ
पीतम इक सुमरिनियाँ मोहिं देइ जाहु।
जेहि जपि तोर बिरहवा करब निबाहु
बरवै भक्तिपरक
बन्दौ विघन-बिनासन, ऋधि-सिधि-ईस ।
निर्मल बुद्धि-प्रकासन, सिसु ससि सीस ।।1।।
सुमिरौ मन दृढ़ करकै, नन्दकुमार ।
जे वृषभान-कुँवरि कै प्रान-अधार ।।2।।
भजहु चराचर-नायक, सूरज देव ।
दीन जनन सुखदायक, तारन एव ।।3।।
ध्यावौ सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस ।
नागर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस ।।4।।
ध्यावौं विपद-विदारन सुअन-समीर ।
खल दानव वनजारन प्रिय रघुवीर ।।5।।
पुन पुन बन्दौ गुरु के, पद जलजात ।
जिहि प्रताप तैं मन के तिमिर बिलात ।।6।।
करत घुमड़ घन-घुरवा, मुरवा रोर ।
लगि रह विकसि अँकुरवा, नन्दकिसोर ।।7।।
बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरधार ।
सावन आवन कीजत, नन्दकुमार ।।8।।
अजौं न आये सुधि के, सखि घनश्याम ।
राख लिये कहुँ बसि कै, काहू बाम ।।9।।
कबलौं रहिहै सजनी, मन में धीर ।
सावन हूँ नहिं आवन, कित बलबीर ।।10।।
घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज ।
पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन तीज ।।11।।
पीव पीव कहि चातक, सठ अधरात ।
करत बिरहिनी तिय के, हित उतपात ।।12।।
सावन आवन कहिगे, स्याम सुजान ।
अजहुँ न आये सजनी, तरफत प्रान ।।13।।
मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय ।
तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय ।।14।।
बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव ।
मनमोहन तैं मिलवौ राखि क दॉंव ।।15।।
मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय ।
गुन न भूलिहौं सजनी, तनक मिलाय ।।16।।
उमिड़-उमिड़ घन घुमड़े दिसि बिदिसान ।
सावन दिन मनभावन, करत पयान।।17।।
समुझत सुमुखि सयानी, बादर झूम ।
बिरहिन के हिय भभकत तिनकी धूम ।।18।।
उलहे नये अँकुरवा, बिन बलबीर ।
मानहु मदन महिप के बिन पर तीर ।।19।।
सुगमहि गातहि का रन जारत देह ।
अगम महा अति पान सुघर सनेह ।।20।।
मनमोहन तुव मूरति, बेरिझवार ।
बिन पयान मुहि बनिहै, सकल विचार ।।21।।
झूमि झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह ।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरफत देह ।।22।।
झूँठी झूँठी सौंहैं हरि नित खात ।
फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ।।23।।
डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार ।
हरि बिन लागत सजनी, जिमि तरवार ।।24।।
कहियो पथिक सँदेसवा, गहि कै पाय ।
मोहन तुम बिन तनकहु, रह्यो न जाय ।12511
जब ते आयौ सजनी, मास असाढ़ ।
जानी सखि वा तिय के, हिय की गाढ़ ।।26।।
मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ ।
आयौ नन्द-ढोठनवा, लगत असाढ़ ।।271।
वेद पुरानबखानत, अधम-उधार ।
केहि कारन करुनानिधि, करत विचार ।।28।।
लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोर ।
घन घुमड़े चहुँ ओरन, नाचत मोर ।।29।।
लखि पावस ऋतु सजनी, पिय परदेस ।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ।।30।।
बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ़यौ चबाव ।
कर्यौ निठुर नन्दन्दन, कौन कुदाव? ।।31।।
भज्यो किते न जनम भरि, कितनी जाग ।
संग रहत या तन की, छाँही भाग ।।32।।
भज रे मन नंदनन्दन, बिपति बिदार ।
गोपी जन-मन-रंजन, परम उदार ।।33।।
जदपि बसत है सजनी, लाखन लोग ।
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ।।34।।
जदपि भई जल-पूरित, छितव सुआस ।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत पिआस ।।35।।
देखन ही को निस दिन, तरफत देह ।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह? ।।36।।
कब ते देखत सजनी, बरसत मेह ।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ।।37।।
बिरह बिथा ते लखियत, मरिबौ भूरि ।
जौ नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ।।38।।
ऊधो भलो न कहनौ, कछु पर पूठि ।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ।।39।।
भादों निस अँधिअरिया घर अँधिआर ।
बिसर्यो सुघर बटोही, शिव आगार ।।40।।
हौं लखिहौं री सजनी, चौथ-मयंक ।
दखौं केहि विधि हरि सों लगै कलंक ।।41।।
इन बातन कछु होत न कहो हजार ।
सब ही तैं हँसि बोलत, नंद-कुमार ।।42।।
कहा छलत हो ऊधो, दै परतीति ।
सपनेहू नहिं बिसरै, मोहन-मीति ।।43।।
बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर ।
लगत दहे से बिछुरे, नंदकिसोर ।।44।।
भलि भलि दरसन दीनेहु, सब निसि-टारि ।
कैसे आवन कीनेहु, हौं बलिहारि ।।45।।
आदिहि ते सब छुटि गा, जग ब्यौहार ।
ऊधो अब न तिनौ भरि, रही उधार ।।46।।
घेर रह्यौ दिन रतियाँ, बिरह बलाय ।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय! ।।47।।
नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं ।
होत विटप हू नाँगे फागुन माँहि ।।48।।
सहज हँसोई बातें, होत चबाइ ।
मोहन को तनि सजनी, दै समुझाइ ।।49।।
ज्यों चौरासी लख में, मानुष देह ।
त्यों ही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ।।50।।
मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय ।
हरि-भजि कर सत संगति, कह्यौ जताय ।।51।।
अति अद्भूत छबि सागर, मोहन गात ।
देखत ही सखि बूड़त, दृग जलजात ।।52।।
निमरेही अति झूठौ, साँवर गात ।
चुभ्यौ रहत चित को धौं, जानि न जात ।।53।।
बिन देखे कल नाहि न, इन अँखियान ।
पल पल कटत कलप सौं, अहो सुजान ।।54।।
जब तक मोहन झूँठी, सौंहें खात ।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ।।55।।
ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन-प्रान ।
ऊधो यह सँदेसवा, अकह कहान ।।56।।
मोहि मीत बिअन देखे, छिन न सुहात ।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जलजात ।।57।।
जब ते बिछुरे मितवा, कहु कस चैन ।
रहत भर्यो हिय साँसन, आँसुन नैन ।।58।।
कैसे जीवत कोऊ, दूरि बसाय ।
पल अन्तर हू सजनी, रह्यो न जाय ।।59।।
जान कहत हों ऊधो, अवधि बताइ ।
अवधि अवधि लों दुस्तर, परत लखाइ ।।60।।
मिलन न बनिहै भाखत, इन इक टूक ।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ।।61।।
गये हेरि हरि सजनी, बिहँस कछूक ।
तब ते लगनि अगिनि की, उठत भबूक ।।62।।
मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान ।
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ।।63।।
होरी पूजत सजनी जुर नर नारि ।
हरि बिनु जानहु जिय में, दई दवारि ।।64।।
दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कूक ।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ।।65।।
जब तें मोहन बिछूरे, कछु सुधि नाहिं ।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ।।66।।
उझकि उझकि चित दिन दिन, हेरत द्वार ।
जब ते बिछुरे सजनी, नन्दकुमार ।।67।।
जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस ।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ।।68।।
चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय ।
बिन देखे निसबासर, तरफत जाय ।।69।।
तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात ।
होरी से त्यौहारन, पीहर जात ।।70।।
और कहा हरि कहिये, धनि यह नेह ।
देखन ही को निसदिन तरफत देह ।।71।।
जब ते बिछुरे मोहन, भूख न प्यास ।
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ।।72।।
अन्तरगत हिय बेधत, छेदत प्रान ।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ।।73।।
गली अँधेर मिल कै, रहि चुपचाप ।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ।।74।।
सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय ।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय! ।।75।।
उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज ।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि ब्रजराज ।।76।।
जेहिके लिये जगत में बजै निसान ।
तेहिते करे अबोलन, कौन सयान ।।77।।
रे मन भज निस बासर, श्री बलबीर ।
जे बिन जॉंचे टारत, जन की पीर ।।78।।
बिरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय ।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ।।79।।
सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर ।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावा पीर ।।80।।
लखि मोहन की बंसी, बंसी जान ।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ।।81।।
कोटि जतन हू फिरतन बिधि की बात ।
चकवा पिंजरे हू सुनि बिमुख बसात ।।82।।
देखि ऊजरी पूछत, बिन ही चाह ।
कितने दामन बेचत, मैदा साह ।।83।।
कहा कान्ह ते कहनौ, सब जग साखि ।
कौन होत काहू के, कुबरी राखि ।।84।।
तैं चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ ।
याही तें दुचिती सी, परत लखाइ ।।85।।
मी गुजरद ई दिलरा, बेदिलदार ।
इक इक साअत हम चूँ, साल हज़ार ।।86।। (फ़ारसी)
नवनागर पद परसी, फूलत जौन ।
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ।।87।।
समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति ।
सुनहु श्याम की सजनी, का परतीति ।।88।।
नृप जोगी सब जानत, होत बयार ।
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ।।89।।
मोहन जीवन प्यारे कस हित कीन ।
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ।190।।
भज मन राम सियापति, रघुकुल ईस ।
दीनबंधु दुख टारन, कौसलधीस ।।91।।
भज नरहरि, नारायन, तजि बकवाद ।
प्रगटि खंभ ते राख्यो, जिन प्रहलाद ।।92।।
गोरज-धन-बिच राखत, श्री ब्रजचंद ।
तिय दामिनि जिमि हेरत, प्रभा अमंद ।।93।।
ग़र्कज़ मै शुद आलम, चंद हज़ार ।
बे दिलदार के गीरद, दिलम करार ।।94।। (फ़ारसी)
दिलबर ज़द बर जिगरम, तीरे निगाह ।
तपदि’ जाँ मीआयद, हरदम आह ।।95।। (फ़ारसी)
कै गायम अहवालम, पेशे-निगार ।
तनहा नज़र न आयद, दिल लाचार ।।96।। (फ़ारसी)
लोग लुगाई हिल मिल, खेलत फाग ।
पर्यौ उड़ावन मोकौं, सब दिन काग ।।9711
मो जिय कौरी सिगरी, ननद जिठानि ।
भई स्याम सों तब त, तनक पिछानि ।।98।।
होत विकल अनलेखे, सुघर कहाय ।
को सुख पावत वजनी, नेह लगाय ।।99।।
अहो सुधाकर प्यारे, नेह निचोर ।
देखन ही कों तरसै, नैन चकोर ।।100।।
आँखिन देखत सब ही, कहत सुधारि ।
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ।।101।।
पथिक पाय पनघटवा कहत पियाव ।
पैयाँ परौं ननदिया, फेरि कहाव ।।102।।
बरि गइ हाथ उपरिया, रहि गइ आगि ।
घर कै बाट बिसरि गई, गुहनैं लागि ।।103।।
अनधन देखि लिलरवा, अनख न धार ।
समलहु दिय दुति मनसिज, भल करतार ।।104।।
जलज बदन पर थिर अलि, अनखन रूप ।
लीन हार हिय कमलहि, डसत अनूप ।।105।
फुटकर पद
(घनाक्षरी)
अति अनियारे मानों सान दै सुधारे,
महा विष के विषारे ये करत पर-घात हैं।
ऐसे अपराधी देख अगम अगाधी यहै,
साधना जो साधी हरि हयि में अन्हात हैं॥
बार बार बोरे याते लाल लाल डोरे भये,
तोहू तो ‘रहीम’ थोरे बिधि ना सकात हैं।
घाइक घनेरे दुखदाइक हैं मेरे नित,
नैन बान तेरे उर बेधि बेधि जात हैं॥1॥
पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन
चाहत है धन, जेती संपदा सराहिबी।
तेरोई कहाय कै ‘रहीम’ कहै दीनबंधु
आपनी बिपत्ति जाय काके द्वारे काहिबी॥
पेट भर खायो चाहे, उद्यम बनायो चाहे,
कुटुंब जियायो चाहे काढि गुन लाहिबी।
जीविका हमारी जो पै औरन के कर डारो,
ब्रज के बिहारी तो तिहारी कहाँ साहिबी॥2॥
बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम कहा,
जो पै करतार ही न सुख देनहार है।
सीत-हर सूरज सों नेह कियो याही हेत,
ताऊ पै कमल जारि डारत तुषार है॥
नीरनिधि माँहि धस्यो शंकर के सीस बस्यो,
तऊ ना कलंक नस्यो ससि में सदा रहै।
बड़ो रीझिवार है, चकोर दरबार है,
कलानिधि सो यार तऊ चाखत अंगार है॥3॥
मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं,
भले ही निठुर भये काहे को लजाइये॥
तन मन रावरे सो मतों के मगन हेतु,
उचरि गये ते कहा तुम्हें खोरि लाइये॥
चित लाग्यो जित जैये तितही ‘रहीम’ नित,
धाधवे के हित इत एक बार आइये॥
जान हुरसी उर बसी है तिहारे उर,
मोसों प्रीति बसी तऊ हँसी न कराइये॥4॥
(सवैया)
जाति हुती सखि गोहन में मन मोहन कों लखिकै ललचानो।
नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नूंदलाल को रीझिबो जानो॥
जाति भई फिरि कै चितई तब भाव ‘रहीम’ यहै उर आनो।
ज्यों कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो॥5॥
जिहि कारन बार न लाये कछू गहि संभु-सरासन दोय किया।
गये गेहहिं त्यागि के ताही समै सु निकारि पिता बनवास दिया 1।
कहे बीच ‘रहीम’ रर्यो न कछू जिन कीनो हुतो बिनुहार हिया।
बिधि यों न सिया रसबार सिया करबार सिया पिय सार सिया॥6॥
दीन चहैं करतार जिन्हें सुख सो तो ‘रहीम’ टरै नहिं टारे।
उद्यम पौरुष कीने बिना धन आवत आपुहिं हाथ पसारे॥
दैव हँसे अपनी अपनी बिधि के परपंच न जात बिचारे।
बेटा भयो वसुदेव के धाम औ दुंदुभि बाजत नंद के द्वारे॥7॥
पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै लगि लागि गयो कहुँ काहु करैटो।
हिरदै दहिबै सहिबै ही को है कहिबै को कहा कछु है गहि फेटो॥
सूधे चितै तन हा हा करें हू ‘रहीम’ इतो दुख जात क्यों मेटो।
ऐसे कठोर सों औ चितचोर सों कौन सी हाय घरी भई भेंटो॥8॥
कौन धौं सीख ‘रहीम’ इहाँ इन नैन अनोखि यै नेह की नाँधनि।
प्यारे सों पुन्यन भेंट भई यह लोक की लाज बड़ी अपराधिनि॥
स्याम सुधानिधि आनन को मरिये सखि सूँधे चितैवे की साधनि।
ओट किए रहतै न बनै कहतै न बनै बिरहानल बाधनि॥9॥
(दोहा)
धर रहसी रहसी धरम खप जासी खुरसाण।
अमर बिसंभर ऊपरै, राखो नहचौ राण॥10॥
तारायनि ससि रैन प्रति, सूर होंहि ससि गैन।
तदपि अँधेरो है सखी, पीऊ न देखे नैन॥11॥
(पद)
छबि आवन मोहनलाल की।
काछनि काछे कलित मुरलि कर पीत पिछौरी साल की॥
बंक तिलक केसर को कीने दुति मानो बिधु बाल की।
बिसरत नाहिं सखि मो मन ते चितवनि नयन बिसाल की॥
नीकी हँसनि अधर सधरनि की छबि छीनी सुमन गुलाल की।
जल सों डारि दियो पुरइन पर डोलनि मुकता माल की॥
आप मोल बिन मोलनि डोलनि बोलनि मदनगोपाल की।
यह सरूप निरखै सोइ जानै इस ‘रहीम’ के हाल की॥12॥
कमल-दल नैननि की उनमानि।
बिसरत नाहिं सखी मो मन ते मंद मंद मुसकानि॥
यह दसननि दुति चपला हूते महा चपल चमकानि।
बसुधा की बसकरी मधुरता सुधा-पगी बतरानि॥
चढ़ी रहे चित उर बिसाल को मुकुतमाल थहरानि।
नृत्य-समय पीतांबर हू की फहरि फहरि फहरानि।
अनुदिन श्री वृन्दाबन ब्रज ते आवन आवन जाति।
अब ‘रहीम ‘चित ते न टरति है सकल स्याम की बानि॥13
अति अनियारे मानौ सान दै सुधारे
अति अनियारे मानौ सान दै सुधारे,
महा विष के विषारे ये करत पर-घात हैं।
ऐसे अपराधी देख अगम अगाधी यहै,
साधना जो साधी हरि हिय में अन्हात हैं॥
बार बार बोरे याते लाल लाल डोरे भये,
तौहू तो ’रहीम’ थोरे बिधि न सकात हैं।
घाइक घनेरे दुखदाइक हैं मेरे नित,
नैन बान तेरे उर बेधि बेधि जात हैं
पट चाहे तन, पेट चाहत छदन
पट चाहे तन, पेट चाहत छदन, मन
चाहत है धन, जेती संपदा सराहिबी।
तेरोई कहाय कै ’रहीम’ कहै दीनबंधु
आपनी बिपत्ति जाय काके द्वार काहिबी॥
पेट भर खायो चाहे, उद्यम बनायो चाहे,
कुटुंब जियायो चाहे काढ़ि गुन लाहिबी।
जीविका हमारी जो पै औरन के कर डारो,
ब्रज के बिहारी तौ तिहारी कहाँ साहिबी॥
बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम काह
बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम काह,
जो पै करतार ही न सुख देनहार है।
सीत-हर सूरज सों नेह कियो याही हेत,
ताऊ पै कमल जारि डारत तुषार है॥
नीरनिधि माँहि धस्यो, शंकर के सीस बस्यो,
तऊ ना कलंक नस्यो, ससि में सदा रहै।
बड़ो रीझिवार है, चकोर दरबार है,
कलानिधि सो यार, तऊ चाखत अँगार है॥