जागते में रात मुझ को ख़्वाब दिखलाया गया
जागते में रात मुझ को ख़्वाब दिखलाया गया
बन के शाख़-ए-गुल मिरी आँखों में लहराया गया
जो मसक जाए ज़रा सी नोक-ए-हर्फ़ से
क्यूँ मुझे ऐसा लिबास-ए-जिस्म पहनाया गया
अपने अपने ख़ौफ़-घर में लोग हैं सहमे हुए
दाएरे से खींच कर नुक़्ते को क्यूँ लाया गया
ये मिरा अपना बदन है या खँडर ख़्वाबों का है
जाने किस के हाथ से ऐसा महल ढाया गया
बढ़ चली थी मौज अपनी हद से लेकिन थम गई
उस ने ये समझा था कि पत्थर को पिघलाया गया
रात इक मीना ने चूमा था लब-ए-साग़र ‘शमीम’
बात बस इतनी थी जिस को ख़ूब फैलाया गया
स तरह ज़िंदा रहेंगे हम तुम्हारे शहर में
किस तरह ज़िंदा रहेंगे हम तुम्हारे शहर में
हर तरफ़ बिखरे हुए हैं माह-पारे शहर में
जगमगाती रौशनी में ये नहाते सीम-तन
जैसे उतरे हों ज़मीं पर चाँद तारे शहर में
मिस्ल-ए-ख़ुशबू-ए-सबा फैली हुई हर तरफ़
गेसू-ए-बंगाल की ख़ुशबू हमारे शहर में
हुस्न वालों के सितम सह कर भी हम ज़िंदा रहे
वर्ना कितनों के हुए हैं वारे न्यारे शहर में
ये मता-ए-पारसाई भी न लुट जाए कहीं
दे रहे हैं दावत-ए-लग्जिश नज़ारे शहर में
लहलहाते खेत नद्दी गाँव की प्यारी हवा
छोड़ कर बेकार आए हम तुम्हारे शहर में
अपने ही ज़ौक-ए-जमाल-ओ-हुस्न के हाथों ‘शमीम’
आज हम बद-नाम आवारा हैं सारे शहर में
शोला-ए-इश्क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं
शोला-ए-इश्क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं
अपनी ख़ातिर में कहाँ कौन ओ मकाँ रखते हैं
सर झुकाते हैं उस दर पे कि वो जानता है
हम फ़कीरी में भी अंदाज़-ए-शहाँ रखते हैं
बादबाँ चाक है और बाद-ए-मुख़ालिफ़ मुँह-ज़ोर
हौसला ये है कि कश्ती को रवाँ रखते हैं
वहशत-ए-दिल ने हमें चैन से जीने न दिया
चश्म गिर्यां कभी जाँ शोला-फ़िशां रखते हैं
उस को फ़ुर्सत नहीं तो हम भी ज़बाँ क्यूँ खोलें
वर्ना सीने में गुल-ए-जख़्म निहाँ रखते हैं
अर्श-ता-फ़र्श फिराया गया कूचा कूचा
अब ख़ुदा जाने मिरी ख़ाक कहाँ रखते हैं
दिल में वो रश्क-ए-गुलिस्ताँ लिए फिरते हैं ‘शमीम’
फूल खिलते हैं क़दम आप जहाँ रखते हैं
उतर के धूप जब आएगी शब के ज़ीने से
उतर के धूप जब आएगी शब के ज़ीने से
उड़ेगी ख़ून की ख़ूश्बू मिरे पसीने से
मैं वो ग़रीब कि हूँ चंद बे-सदा अल्फ़ाज़
अदा हुई न कोई बात भी क़रीने से
गुज़िश्ता रात बहुत झूम के घटा बरसी
मगर वो आग जो लिपटी हुई है सीने से
लहू का चीख़ता दरिया ध्यान में रखना
किसी की प्यास बुझी है न ओस पीने से
वो साँप जिस को बहुत दूर दफ़्न कर आए
पलट न आए कहीं वक़्त के दफ़ीने से
दिलों को मौज-ए-बला रास आ गई शायद
रही न कोई शिकायत किसी सफ़ीने से
वजूद शोला-ए-सय्याल हो गया है ‘शमीम’
उठी है आँच अजब दिल के आबगीने से
वो मिरा होगा ये सोचा ही नहीं
वो मिरा होगा ये सोचा ही नहीं
ख़्वाब ऐसा कोई देखा ही नहीं
यूँ तो हर हादसा भूला लेकिन
उसका मिलना कभी भूला ही नहीं
मेरी रातों के सियह आँगन में
चाँद कोई कभी चमका ही नहीं
ये तअल्लुक़ भी रहे या नहीं रहे
दिल-क़लंदर का ठिकाना ही नहीं