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दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा

दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
उफ़ुक़-ए-दर्द से सीने में उजाला उतरा

रात आई तो अँधेरे का समंदर उमड़ा
चाँद निकला तो समंदर में सफ़ीना उतरा

पहले इक याद सी आई ख़लिश जाँ बन कर
फिर ये नश्तर रग-ए-एहसास में गहरा उतरा

जल चुके ख़्वाब तो सर नामा-ए-ताबीर खुला
बुझ गई आँख तो पलकों पे सितारा उतरा

सब उम्मीदें मेरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
बस्तियाँ हो गईं ग़र्क़ाब तो दरिया उतरा

कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए 

कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए
घर बाहर के रास्तों में हैं शजर टूटे हुए

लुट गया दिन का असासा और बाक़ी रह गए
शाम की दहलीज़ पर लाल ओ गोहर टूटे हुए

याद-ए-याराँ दिल में आई हुक बन कर रह गई
जैसे इक ज़ख़्मी परिंदा जिस के पर टूटे हुए

रात है और आती जाती साअतें आँखों में हैं
जैसे आईने बिसात-ए-ख़्वाब पर टूटे हुए

आबगीने पत्थरों पर सर-निगूँ होते गए
और हम बच कर निकल आए मगर टूटे हुए

मिल गए मिट्टी में क्या क्या मुंतज़िर आँखों के ख़्वाब
किस ने देखे हैं सितारे ख़ाक पर टूटे हुए

वो जो दिल की मुमलिकत थी बाबरी मस्जिद हुई
बस्तियाँ सुनसान घर वीरान दर टूटे हुए

पल रहे हैं कितने अँदेशे दिलों के दरमियाँ 

पल रहे हैं कितने अँदेशे दिलों के दरमियाँ
रात की परछाइयाँ जैसे दियों के दरमियाँ

फिर किसी ने एक ख़ूँ-आलूद ख़ंजर रख दिया
ख़ौफ़़ के ज़ुल्मत-कदे में दोस्तों के दरमियान

क्या सुनहरी दौर था हम ज़र्द पत्तों की तरह
दर-ब-दर फिरते रहे पीली रूतों के दरमियाँ

ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
पारसाओं देवताओं क़ातिलों के दरमियाँ

आशिती के नाम पर इतनी सफ़-आराई हुई
आ गई बारूद की ख़ुश-बू गुलों के दरमियाँ

मेरा चेहरा ख़ुद भी आशोब-ए-सफ़र में खो गया
मैं ये किस को ढूँढता हूँ मंज़िलों के दरमियाँ

सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है

सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है
फिर ये एक दिन बरसों साथ साथ चलता है

कुछ न कुछ तो होता है इक तेरे न होने से
वरना ऐसी बातों पे कौन हाथ मलता है

क़ाफ़िले तो सहरा में थक के सो भी जाते हैं
चाँद बादलों के साथ सारी रात चलता है

दिल चराग़-ए-महफ़िल है लेकिन उस के आने तक
बार बार बुझता है बार बार जलता है

कुल्फ़तें जुदाई की उम्र भर नहीं जातीं
जी बहल तो जाता है पर कहाँ बहलता है

दिल तपान नहीं रहता मैं ग़ज़ल नहीं कहता
ये शरार अपनी ही आग से उछलता है

मैं बिसात-ए-दानिश का दूर से तमाशाई
देखता रहा शातिर कैसे चाल चलता है

उम्मीद का बाब लिख रहा हूँ

उम्मीद का बाब लिख रहा हूँ
पत्थर पे गुलाब लिख रहा हूँ

वो शहर तो ख़्वाब हो चुका है
जिस शहर के ख़्वाब लिख रहा हूँ

अश्कों में पिरो के उस की यादें
पानी पे किताब लिख रहा हूँ

वो चेहरा तो आईना-नुमा है
मैं जिस को हिजाब लिख रहा हूँ

सहरा में वफ़ूर-ए-तिश्नगी से
साए को सहाब लिख रहा हूँ

लम्हों के सवाल से गुरेज़ाँ
सदियों का जवाब लिख रहा हूँ

सब उस के करम की दास्तानें
मैं ज़ेर-ए-इताब लिख रहा हूँ

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