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सुनील त्रिपाठी की रचनाएँ

हाँथ सिर पर धरो मातु तुम शारदे

हाथ सिर पर धरो मातु तुम शारदे, भाव के पुष्प नित मैं चढ़ाता रहूँ॥
पद्म आसित रहो चक्र पर ज्ञान के, गीतिका छंद मुक्तक बनाता रहूँ॥

लेखनी सत्य की मसि में’ डूबी रहे, जब चले तो सदा सत्य ही बस लिखे।
सत्य का मात्र चिन्तन मनन मैं करूँ, सत्य से निज सर्जन को सजाता रहूँ॥

काव्य साहित्य से भक्त अन्जान है, मापनी व्याकरण का कहाँ ज्ञान है।
गुरु कृपा से मिले तव कृपा हंसिनी, शीश पद रज मैं’ गुरु की लगाता रहूँ॥

देवि तुम ज्ञान की बुद्धि की दायिनी, तम हरो दो मुझे अब नई रोशनी।
भक्ति घृत में डुबा वर्तिका प्रेम की, दीप सम्मुख तुम्हारे जलाता रहूँ॥

मात्र वरदान इतना मुझे मातु दो, हो न अभिमान अपने सर्जन पर कभी।
जो लिखाया पकड़ हाँथ माँ रात दिन, हूँ मैं’ उपकृत तुम्हारा बताता रहूँ॥

भाग्य के दास जो हीन हैं कर्म से, दो उन्हें बुद्धि सद् श्वेतकमलासिनी।
माँग अधिकार की जब करें लोग वे, याद कर्त्तव्य उनको दिलाता रहूँ॥

भक्त करते तुम्हारी जो’ आराधना, पूर्ण करती सभी की मनोकामना।
याचना वीणा’पाणिनि यही है मे’ री नित्य दर्शन सुबह शाम पाता रहूँ॥

खौफ अब आतंक का जड़ से मिटाना चाहिए

खौफ अब आतंक का जड़ से मिटाना चाहिए.
नीड से भटके खगों को, फिर बसाना चाहिए.

हादसे हों नित नये, पैमाइशों पर धर्म की।
खेल ऐसा अब न बच्चो को सिखाना चाहिए.

अनुसरण तो बुद्ध के, उपदेश का यूँ ठीक है।
सूत्र पर चाणक्य के भी, आजमाना चाहिए.

साधुता से दुर्जनों को, जीतना है नीतिगत।
किन्तु फल जैसे को’ तैसा भी चखाना चाहिए.

राजनैतिक हों भले, मतभेद दल गत लाख पर।
राष्ट्र मुद्दों पर सभी को, साथ आना चाहिए.

युद्ध जब स्वजनों के’ सँग हो और पैदा मोह हो।
ध्यान गीता सार पर हमको लगाना चाहिए.

नींद से यदि इस जगत को है जगाना

नींद से यदि इस जगत को है जगाना।
लेखनी को फिर पड़ेगा ही चलाना।

छंद मय साहित्य सागर की तरह है।
ढूँढ लो गहराइयों में है खजाना।

पाँव में अपने न जब तक हो बिवाँई.
पीर दूभर है किसी की जान पाना।

घोर संकट में उसे ही तुम पुकारो।
चाहते हो जिस किसी को आजमाना।

कर भले लो रेशमी परिधान धारण।
पर हँसी तुम चीथड़ों की मत उड़ाना।

घाव मुझको मत नया दो एक फिर से।
सूखना बाकी अभी तक है पुराना।

सत्य कहने का अगर साहस न हो तो।
व्यर्थ कविता काव्य मंचों पर सुनाना।

तुमसे थी गुलजार ज़िन्दगी

तुमसे थी गुलजार ज़िन्दगी।
बिना तुम्हारे खार ज़िन्दगी।

हल्की पुल्की थी जब तुम थे।
अब तो है बस, भार ज़िन्दगी।

सुलग रही है हौले हौले।
जैसे हुई सिगार ज़िन्दगी।

पीर प्रसव की हर लेती है।
करती जब किलकार ज़िन्दगी।

लील गया आतंकवाद का।
दानव कई हजार ज़िन्दगी।

जो कर्तव्य निभाने निकले।
है उनका अधिकार ज़िन्दगी।

किया पाँचवें दिन का वादा।
बची इधर दिन चार ज़िन्दगी।

व्यर्थ गवाँना कभी इसे मत।
मिलती नहीं उधार ज़िन्दगी।

जब तक हूँ मैं जी लो हँसकर।
कहती बारम्बार ज़िन्दगी।

हीन है जो कर्म से कर्तव्य से लाचार है

हीन है जो कर्म से कर्तव्य से लाचार है।
आजकल वह आदमी भी माँगता अधिकार है।

कर रहे हैं लोग जो अपमान निज माँ बाप का।
क्यों उन्हें सन्तान से सम्मान की दरकार है।

मानसिक इतना प्रदूषित हो गया मानव यहाँ।
कर रहा जो बच्चियों के साथ यौनाचार है।

छोड़ दें आतंक की यदि राह भटके नवयुवक।
देश सब कुछ भूल जाने के लिए तैयार है।

लूट ली अस्मत लिखाने जब रपट कजरी गयी।
पूछता अश्लीलता के प्रश्न थानेदार है।

लोभ लालच वासना में लिप्त वह उतना अधिक।
धर्म का जितना बड़ा जो व्यक्ति का ठेकेदार है।

मेरे गूंगे प्रश्न, क्या कभी तुम सुन लोगे

मेरे गूंगे प्रश्न, क्या कभी तुम सुन लोगे।
उत्तर से संतुष्ट, मुझे कब तक कर दोगे॥

हरे अभी तक घाव, गये हो देकर जो तुम।
उन पर आकर हाथ, प्यार से कब फेरोगे॥

पड़े अधूरे स्वप्न, अभी तक इन नयनों में।
गहरी मीठी नींद, पुनः क्या सुला सकोगे॥

जानोगे, किस तरह, जिए हम बिना तुम्हारे।
बहा अश्रु जब पत्र, अधजले हुए पढ़ोगे॥

मूल्य भले अनुमान, लगा लो उपहारों का।
अनुमानित किस भांति प्रीति अनमोल करोगे॥

चाह किसी की नहीं, किन्तु यह होगा निश्चित।
दर्पण में प्रतिबिम्ब एक दिन तुम ढूंढोगे॥

घर यादों का बन्द, भले कर डालो मेरी।
पर सुनील को शेष, झरोखे से झांकोगे॥

भेदिए एकाग्र मन से, लक्ष्य है यह अति बड़ा

भेदिए एकाग्र मन से, लक्ष्य है यह अति बड़ा।
देश अपना स्वच्छता के, मार्ग पर अब चल पड़ा।

स्वच्छता अभियान, छेड़ा हो किसी सरकार ने।
किन्तु तब होगा सफल, हर नागरिक जबहो खड़ा।

लोग हों निर्लिप्त वे, जो लिप्त भ्रष्टाचार में।
दोष हो गम्भीर यदि, तो दण्ड अतिशय हो कड़ा।

पार्श्व में हो सात पर्दों, के भले व्यभिचार अब।
फूट ही जाता किसी दिन, पाप पूरित हर घड़ा।

युद्ध त्रेता और द्वापर या हुआ कलियुग में हो।
सच सदा विजयी हुआ है झूठ से जब भी लड़ा।

हर प्रणाली आन लाइन पारदर्शी हो रही।
खोद लेगी एक क्लिक अब कब्र से मुर्दा गड़ा।

पुलिंदे झूठ के हैं ये, इन्हें अख़बार मत कह

पुलिंदे झूठ के हैं ये इन्हें अख़बार मत कह।
कलम ग़र बिक चुकी है तो उसे तलवार मत कह।

निभाया जा रहा है फ़ोन इंटर्नेट पर जो।
मशीनी दौर के इस फ़र्ज़ को व्यवहार मत कह।

जिसे टी आर पी तगड़ी मिले चलती ख़बर वह।
किसी भी मीडिया हाउस को ज़िम्मेदार मत कह।

उठाते बोझ तेरी परवरिश का उम्र भर जो।
कमसकम शर्म कर माँ बाप को तो भार मत कह।

रहीमो राम या फिर, नाम का गुरु मीत हो वह।
जो’ असमत का लुटेरा हो उसे सरदार मत कह।

चढ़ावा मत चढ़ा मंदिर किसी दरगाह पर तू।
ज़रूरतमंद को लेकिन कभी इंकार मत कह।

पुराना पेड़ है ग़र फल, नहीं तो छांव देगा।
बुजुर्गों की तरह कर कद्र, यूं बेकार मत कह।

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